लिखते लिखते थक न जाऊँ …
औ अधर्मी न कहलाऊँ …
यही सोच कर चुप बैठा हूँ,
वर्ना, …
क्या मंदिर, औ क्या मस्जिद, …
जगह जगह हो कर आया हूँ,
जगह जगह हो कर आया हूँ,
जब चाहूँ …
तब मैं लिख दूँ …
हैं मंदिर-मस्जिद … दोनों सूने,
सच तो ये है …
और 'राम' बसे धड़कन में … ?
No comments:
Post a Comment