Thursday, October 31, 2013

धर्मनिरपेक्षता की आड़ में धर्मनिरपेक्षता का दुरुपयोग ?

धर्मनिरपेक्षता की आड़ में धर्मनिरपेक्षता का दुरुपयोग !

यदि कोई राजनैतिक दल या कोई व्यक्ति विशेष किसी धर्म विशेष के सहारे सत्ता प्राप्त करने का स्वप्न देखेगा या सत्ता प्राप्त करने का प्रयास करेगा तब भी वह अपने मंसूबों को पूरा कर पाने में सफल नहीं हो पायेगा क्योंकि धर्मनिरपेक्षता के मामले में आज हमारे देश के लगभग सभी धर्मों के लोग जागरुक हो गए हैं, परिपक्व हो गए हैं, आज वे भलीभांति समझते हैं कि कौन उन्हें वोटों की नीयत व भावना से अपनी ओर खीचने व मिलाने का प्रयास कर रहा है। आज हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध, सभी धर्मों के लोग जानते, बूझते व समझते हैं कि वर्त्तमान दौर में कदम कदम पर राजनीति स्वार्थ से ओत-प्रोत है, अगर कोई उन्हें लुभाने का प्रयास करेगा तो वे तत्काल समझ जायेंगे, वैसे भी जिस प्रकार सच व झूठ चेहरे पर झलकता हुआ साफ़ साफ़ दिखाई देता है ठीक वैसे ही नेताओं के चेहरे पर स्वार्थगत धर्मनिरपेक्षता के भाव भी साफ़ साफ़ दिखाई देने लगते हैं। मन के भावों को समझने के लिए बात सिर्फ आमने सामने की ही नहीं है टेलीविजन पर, मंचों पर, सभाओं में भी जब कोई धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ने अथवा पढ़ाने की कोशिश करता है तब भी यह समझ में आ जाता है कि वह क्या बोल रहा है और क्यों बोल रहा है ? आज देश में धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाने वालों की उतनी जरुरत नहीं है जितनी जरुरत है धर्मनिरपेक्षता समझने वालों की, आज जो भी राजनैतिक दल अथवा राजनैतिक व्यक्तित्व इस बात को समझते-बूझते हुए आचरण करेगा वह निसंदेह सराहा जाएगा। कदम कदम पर अगर यूँ ही राजनैतिक दल व उनके आका मनगढ़ंत व दिखावे का ढोंग करते रहे व रचते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब लोग इन्हें देखकर ही मुंह मोड़ लें अथवा मुंह मोड़ कर चले जाएं ?  

आज धर्मनिरपेक्षता व अल्पसंख्यक शब्दों अर्थात विषयों का राजनैतिक फायदों के लिए जिस ढंग से उपयोग व दुरुपयोग हो रहा है वह अत्यंत ही चिंता का विषय है, यह चिंता आमजन तक सीमित नहीं रहनी चाहिए वरन यह चिंता उच्च संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तित्वों के जेहन तक भी होनी चाहिए, अन्यथा इन शब्दों का दुरुपयोग करने वाले कहीं उस कगार तक न पहुँच जाएँ जहां से लोकतंत्र का अस्तित्व खतरे में नजर आने लगे, कहीं ऐसा न हो हमारा धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र स्वमेव ही शनै: शनै: साम्प्रदायिक रूप ले ले। वजह ? वजह सिर्फ एक है, वो है, इन शब्दों अर्थात विषयों का निरंतर बढ़ता दुरुपयोग, आज के दौर में कभी धर्मनिरपेक्षता तो कभी अल्पसंख्यक शब्दों का कुछ इस तरह दुरुपयोग हो रहा है कि देखते व सुनते ही खून खौलने लगता है। खासतौर पर इन विषयों का दुरुपयोग राजनैतिक दल व राजनैतिक व्यक्तित्व अपने फायदे अर्थात वोट बैंक के लिए मौके-बेमौके भरपूर कर रहे हैं, और तो और आज के दौर के ज्यादातर राजनैतिक लोग लगभग हर क्षण इन शब्दों के उपयोग व दुरुपयोग के माध्यम से फ़ायदा उठाने की फिराक में रहते हैं, वे इस बात से भी निष्फिक्र रहते हैं कि भले चाहे उनके इस प्रयास के फलस्वरूप धार्मिक सौहार्द्र व भाईचारा ही क्यों न संकट में पड़ जाए ? वे इस बात से भी निष्फिक्र रहते हैं कि भले चाहे उनके स्वार्थपूर्ण कृत्य के परिणामस्वरूप साम्प्रदायिक हिंसा घटित होकर शान्ति भंग ही न क्यों हो जाए ? वे इस बात से भी अनभिज्ञ हो जाते हैं कि जिस भाईचारे के निर्माण में वर्षों लगते हैं वह पल दो पल में ही क्यूँ न ख़त्म हो जाए ? सीधे व स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो उन्हें सिर्फ और सिर्फ अपनी व अपने वोटों की चिंता रहती है !

आज के दौर के एक-दो नहीं वरन ज्यादातर राजनैतिक दल व राजनैतिक व्यक्तित्व कदम कदम पर अपने राजनैतिक हितों के लिए धर्मनिरपेक्षता व अल्पसंख्यक शब्दों अर्थात भावों को तोड़-मरोड़ कर परिभाषित करने से भी बाज नहीं आते हैं, बाज नहीं आ रहे हैं ! इन विषयों पर चर्चा करने के पीछे मेरा उद्देश्य मात्र इतना है कि कहीं किसी दिन लोकतंत्र खतरे में न पड़ जाए ? कभी कभी तो मुझे ऐसा भी प्रतीत होने लगता है कि धर्मनिरपेक्षता व अल्पसंख्यक शब्दों से ही तो कहीं साम्प्रदायिक शब्द का जन्म नहीं हुआ है ? बड़े अजीबो-गरीब हालात हैं अपने देश में, जब एक ढंग से हिंदुत्व की बात होती है तो उसे साम्प्रदायिकता का नाम दे दिया जाता है, और ठीक इसके विपरीत जब उसी ढंग से जब इस्लाम की बात होती है तो उसे धर्मनिरपेक्षता का नाम दे दिया जाता है। बड़ी अजीबो-गरीब कहानी है एक ही ढंग व एक ही बात के दो अलग अलग भाव व अर्थ परिभाषित कर दिए जाते हैं, जबकि जहां तक मेरा मानना व समझना है कि न तो यहाँ हिन्दू अल्पसंख्यक हैं और न ही मुसलमान, फिर भी जब धर्मनिरपेक्षता की बात आती है तो परिभाषाएं अलग अलग नजर आती हैं, ऐसा क्यों है ? किसलिए है ? इसके जवाब अपने आप में पहेली से कम नहीं हैं, यह उल्झन शायद तब तक रहे जब तक धर्मनिरपेक्षता व अल्पसंख्यक शब्दों की परिभाषा नए सिरे से परिभाषित न कर दी जाए ? यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो धर्मनिरपेक्षता का दुरुपयोग होते रहेगा, राजनैतिक लोग अपने अपने स्वार्थों व हितों के लिए अपने अपने ढंग से धर्मनिरपेक्षता को परिभाषित करते रहेंगे तथा देश का जनमानस कभी इधर तो कभी उधर मुंडी उठा-उठा कर देखता रहेगा।  

इसके साथ साथ एक समस्या और भी है, जो सड़क पर है, गलियों व मोहल्लों में है, प्रत्येक गाँव व शहर में है, धर्मनिरपेक्षता का अभिप्राय यह भी नहीं है कि लोग धार्मिक परम्पराओं व संस्कारों को धार्मिक उन्माद में बदल दें, मुझे आज यह कहने में तनिक संकोच जरुर हो रहा है लेकिन फिर भी मैं कहने से हिचकिचाऊंगा नहीं कि आज के दौर में आयेदिन हम सडकों पर देखते हैं कि हमारे लोग, हमारे अपने लोग धार्मिक परंपराओं व संस्कारों का आयोजन बहुत बड़े पैमाने पर करने लगे हैं, बड़े पैमाने पर आयोजन करने के पीछे उनका मकसद कहीं न कहीं अपनी ताकत दिखाना होता है, अब आप सोच सकते हैं कि जब आयोजनों का उद्देश्य ताकत दिखाना हो जाए, बल प्रदर्शन करना हो जाए तब संस्कार व परम्पराएं कितनी मर्यादित होंगी ? यह कहते हुए मुझे दुःख व संकोच दोनों हो रहा है कि आजकल लोग परम्पराओं व संस्कारों के आयोजनों की आड़ में उन्मादी हो गए हैं, उन्मादी होते जा रहे हैं ? धार्मिक संस्कारों व परम्पराओं की आड़ में घातक व जानलेवा अस्त्र-शस्त्रों का खुलेआम प्रदर्शन एक तरह से बल का प्रदर्शन ही है, इस तरह के आयोजन किसी भी दृष्टिकोण से न तो सराहनीय हैं और न ही अनुकरणीय। मुझे तो ऐसा लग रहा है कि इस तरह के आयोजनों को धर्मनिरपेक्षता की आड़ में जो स्वायत्तता मिल रही है वह स्वायत्तता ही इन आयोजनों के उन्मादी होने की वजह बन रही है। अक्सर ऐसे आयोजन धार्मिक सौहार्द्र को बढ़ावा न देकर भय के वातावरण का निर्माण कर रहे हैं। जहां तक मेरा मानना है कि अब वह समय आ गया है जब इन विषयों पर गम्भीर चिंतन-मनन हो, आज धर्मनिरपेक्षता व अल्पसंख्यक ऐसे दो संवेदनशील विषय हो गए हैं जिन पर संसद में नए सिरे से चर्चा की जाकर नई परिभाषा परिभाषित करने की आवश्यकता है, अन्यथा ये विषय कभी भी लोकतंत्र को खंडित कर सकते हैं !

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