Thursday, June 6, 2013

घाव ...


ये,...टुच्चों-औ-लुच्चों का दौर है 'उदय'
यहाँ तुम्हारी-औ-हमारी बखत क्या है ?
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कुर्सी का मोह छोड़ दें, क्यूँ भला अब हम 'उदय'
इक कुर्सी के ही तो खातिर, बेचा है ईमान भी ?
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करोड़ों की भीड़ में, कहीं खो गये हैं 
हम,...............उन्हें ढूँढते-ढूँढते ? 
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जैसे-तैसे ही घाव सूखे थे दिल के
मगर जालिम, आज फिर देख के मुस्कुरा गया हमको ?
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उनकी ये अदा भी 'उदय', आज हमको खूब भा रही है
पीठ अपनी, ............... वे खुद ही थप-थपा रहे हैं ?
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1 comment:

Arun sathi said...

उनकी ये अदा भी 'उदय', आज हमको खूब भा रही है
पीठ अपनी, ............... वे खुद ही थप-थपा रहे हैं ?
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khoob...bahut khoob