Tuesday, June 5, 2012

तसल्ली ...


हे 'सांई', मेरे लिए तेरी चौखट ही मक्का-मदीना है 
ज्यों सजदे को नजर झुकी, त्यों 'खुदा' नजर आए !
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'रब' जानता है या खुद वो जानते हैं, वजह जुदाई की 
वर्ना ..... चाहतें तो, दोनों सिरों पर आसमान पे थीं ! 
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सुनो, तुम्हें ऐंसा सुलूक शोभा नहीं देता 
चाहते भी रहो, और खामोश भी रहो ?
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जिधर देखो उधर, चेहरे-चेहरे पे हिन्दू-मुसलमान लिखा है 
हे 'सांई' कोई तो तरकीब सुझाओ जिससे ये भेद मिट जाए ?
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हम जानते हैं, तुम बे-वजह खुद को भी तसल्ली नहीं देते 
जरुर कोई ख़ास वजह होगी, हमें देखकर मुस्कुराने की ?