Monday, December 12, 2011

... क्यूँ बुझने नहीं देतीं ?

कातिलों के हाँथ में क़ानून है
मुंह फाड़े, आँखें नटेर रहा आम इंसान है !
...
जी करे है, बेईमानी सीख लें
अब कहाँ ईमान की पूजा हुए है !
...
खुशनसीबी हमारी जो नींद खुल गई
वर्ना 'रब' ही जाने, कब सवेरा होता !
...
सच ! न कालेज की डिग्री है, न पीएचडी हूँ
जो सामने दिखे है, उसी को ठोक देता हूँ !!
...
आश्चर्य ! तुम मुझे अभी भी प्यार करती हो
उम्मीदों के चिराग, क्यूँ बुझने नहीं देतीं ??

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

खुश रह लें घर में जैसे हैं।