किवाड़ पे डोंट डिस्टर्व की तख्ती
और अन्दर डिस्टर्व ही डिस्टर्व है कोई !
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वक्त के सांथ भी जब वो, न खुद को बदलना चाहे
मुमकिन है वो वक्त को बदलने की चाह रखता है !
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सरकार ने मंहगाई बढ़ा-बढ़ा के, खूब पाठ पढ़ाया है
बच्चे-बच्चे को, आटे-दाल का भाव समझ आया है !
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एक अर्से से हम खुदी को आजमा रहे थे
जिंदगी का सबब जान के, हम खुद ही हैरां हुए हैं !
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क्यूं दिल की लगी, दिल्लगी हुई
'खुदा' जाने है, या तू !!
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जी चाहे, जितना चाहे, तुम चीखते रहो
लो, हम बैठ गए, और मौन हुए हैं !
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लो, होते होते, ये क्या गजब हो गया
अपुन आज से किसी और का हो गया !
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ठीक ही कहते हो 'उदय', पुरुस्कारों के भी पांव होते हैं
सच ! वे खुद-ब-खुद, किसी न किसी के दर पे होते हैं !
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बहुत मुश्किल भी नहीं हैं, बहुत आसां भी नहीं हैं
चाहतें, ख्वाहिशें, मंजिलें, बहुत दूर भी नहीं हैं !!
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कल तक तो थी डायन, आज भष्मासुर हुई है
सुनते हैं, मंहगाई सरकार की लुगाई हुई है !!
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