कब तक मैं खामोश बैठता
कई घंटों से बैठा था
सोच रहा था, क्या ना जाने
क्या धुन थी खामोशी की !
बैठे बैठे सोच रहा था
डूबा था खामोशी में
क्यों और कैसा, था सन्नाटा
क्या धुन थी खामोशी की !
कब से मैं खामोश रहा था
और कब तक खामोशी थी
ये मुझको भी खबर नहीं थी
क्या धुन थी खामोशी की !
कुछ घंटों से देख रहा था
सदियों सी सरसराहट थी
कुछ बैचेनी, कुछ हलचल थी
क्या धुन थी, खामोशी की !!
3 comments:
khamoshee kee chitkar me kan ke parde fad dene kee khamata hai...........
lambe samay ke liye antarmukhee hona mansik vikaro ko janm de deta hai..........
sabhee dabe bhav prabal ho uthate hai........
sunder abhivykti..
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बड़ी पुरानी याद दिला दी।
कभी खामोशी हमारी दोस्त हुआ करती थी।
और
गुनगुनाते रहती थी-
तू प्यार का सागर है,
तेरी इक बूंद के प्यासे हम।
आपका ब्लाग देखकर प्रशंन्नता हुई।
लिखते रहें।
शुभकामनाएं।
आपका अभिन्न,
दिनेश पाण्डेय।
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कुछ बैचेनी, कुछ हलचल थी
क्या धुन थी, खामोशी की !
इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ....रचना....
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