हमसे मिलते रहे
और हम उन्हें, अपना
और हम उन्हें, अपना
हमदम समझते रहे
चलते-चलते,
चलते-चलते,
ये हमें अहसास न हुआ
कि वो दोस्त बनकर,
कि वो दोस्त बनकर,
दुश्मनी निभा रहे हैं
एक-एक बूंद 'जहर',
एक-एक बूंद 'जहर',
रोज हमको पिला रहे हैं !
अब हर कदम पर देखता हूं,
अब हर कदम पर देखता हूं,
उनका 'हुनर'
हर 'हुनर' को देखकर ,
हर 'हुनर' को देखकर ,
अब सोचता हूं
'दोस्ती' से दुश्मनी ज्यादा भली थी
तुम दुश्मन होते,
'दोस्ती' से दुश्मनी ज्यादा भली थी
तुम दुश्मन होते,
तो अच्छा होता
कम-से-कम मेरी पीठ में,
कम-से-कम मेरी पीठ में,
खंजर तो न उतरा होता !
संतोष कर लेता,
संतोष कर लेता,
देखकर खरोंच सीने की
अब चाहूं तो कैसे देखूं,
अब चाहूं तो कैसे देखूं,
वो निशान पीठ के
अब 'उदय' तुम ही कुछ कहो
किसे 'दोस्त',
अब 'उदय' तुम ही कुछ कहो
किसे 'दोस्त',
और दुश्मन किसे कहें।
7 comments:
Aah!
दोस्त के रूप में दुश्मन ---खतरनाक।
अब 'उदय' तुम ही कुछ कहो
किसे 'दोस्त', और दुश्मन किसे कहें।
Ye sawal to shayad sabko mathta hai.
आपकी रचना कहीं ना कहीं बहुत भीतर तक छू गयी ।
वो रहनुमा 'दोस्त' बनकर, हमसे मिलते रहे
............LAJWAAB..........
अब हर कदम पर देखता हूं, उनका 'हुनर'
हर 'हुनर' को देखकर , अब सोचता हूं
'दोस्ती' से दुश्मनी ज्यादा भली थी
तुम दुश्मन होते, तो अच्छा होता
कम-से-कम मेरी पीठ में,
खंजर तो न उतरा होता ...
अच्छी रचना है ........ कुछ दोस्तों से भी बच कर रहना अच्छा है ............
दोस्त ही दुश्मन हो जाते हैं,जिन्हें अपना माना वही बेगाने हो जाते हैं ।...
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