Saturday, April 30, 2011

छोटा या बड़ा ...

कौन छोटा है
और कौन बड़ा है
मुझे
फर्क, समझ नहीं आता !

जिन्हें लोग, समाज
बड़ा समझते, मानते हैं
वे तो, मुझे
एक - दूसरे को
चांते, सहलाते, पौंछते
ही दिखते हैं !

बताओ, अब मैं, कैसे
और किसको
छोटा या बड़ा, मान लूं !!

Friday, April 29, 2011

... दूर से ही सही, पर चाहता तो है !

सच ! क्या हुआ जो जेल में, बैठे हुए हैं हम
ये तंत्र है अपना, और सल्तनत हमारी है !
...
क्या हुआ जलते रहे हम, दीप बन के रात में
सर्द भी बढ़ने लगी थी, काली अंधेरी रात में !
...
शब्दों को प्यार में इस तरह सटा-सटा के रख दिया जाए
जब भी देखे कोई, दूर से, पास से, उसे कविता ही लगे !!
...
बेकरारी में वक्त गुजरता रहा, हम चलते रहे
कहीं कुछ छूट गया, गुजरते वक्त के सांथ !!
...
कोई है जो तुम्हें, आज भी चाहता है
उफ़ ! दूर से ही सही, पर चाहता तो है !
...
क्या करोगे जानकर तुम, मेरी दास्ताँ-ए-मोहब्बत
तुम किसी हंसी चेहरे पे, तो हम वतन पे फ़िदा हैं !

... दिल में न सही, हौंठों पे तो होते !

तुमसे मिले, मिलते रहे, हम मुसाफिर की तरह
लम्हे-लम्हे में, सदियों-सा सुकून मिला है हमें !
...
क्या बात है, मारा है पटक के आंकड़ों ने
कोई गौरवांवित है, तो कोई शर्मसार है !
...
उफ़ ! सुनते हैं, लिखते वही हैं, जो छपते रहे हैं
भला अब अपना क्या लेखन, जो छपते नहीं हैं !
...
काश ! हम भी होते, उसके जैसे
दिल में सही, हौंठों पे तो होते !
...
कहो, कब तलक, तुम्हें हम यूं ही देखते रहें
कभी फुर्सत निकाल के, मिल लिया करो !
...
कभी इधर-कभी उधर, हम उड़ते रहे फिजाओं में
तुम्हारे सांथ में, घरौंदों सा सुकूं, मिलता है हमें !

Thursday, April 28, 2011

वही बोतल, वही साकी ...

हुश्न की चौखटों पे, किसी की जातें नहीं होतीं
यह वो दरिया है, जहां हर कोई डूब जाता है !!

जिस चौखट पे, तुम पहुंचते हो छिपते-छिपाते
वहीं पे, सिर, मस्तक, आँखें, फिर क्यूं झुकाते हो !

जिसे कोसे फिरे तुम, दिनों - दिन महफिलों में
हुई रात, वहीं तुम, फिर आशियाना क्यूं बनाते हो !

जिसे तुम मान बैठे हो, है वो कोढ़ की दुनिया
उसी को मरहम समझ, जख्मों पे, फिर क्यूं लगाते हो !

जब तुम बाहर चले - निकले, तब पैर डग-मगाते हैं
पैर जब सांथ देते हैं, तब उसी चौखट पे, फिर क्यूं पहुँच जाते हो !

नहीं कोई जहां में, जो मैकदे जी जात पूंछ ले
है, वही बोतल, वही साकी, जिसे सब चूम लेते हैं !!

... बन मील का पत्थर, वही राहें दिखाएंगे !!

जो जा छिपे बैठे हैं, डर से कंदराओं में
वक्त के तूफां, उन्हें भी बाहर लायेंगे !
...
सवालों पे सवाल उठाने की देश में नई रीत चली है
सच्ची आस्थाएं भी, सवालों के कटघरे में खडी हैं !
...
चप्पे-चप्पे पे माफिया राज चल रहा है 'उदय'
क्यों , फिर किसी अन्ना को जगाया जाए !
...
ये कैसा तंत्र है, जिसे सब लोकतंत्र कहते हैं
लोग हैं बंद जेलों में, और चुनाव जीते पड़े हैं !
...
उफ़ ! इसे तुम धोखा, धोखाधड़ी मत समझो यारो
ये खुल्लम-खुल्ला लूट है, इन्हें दण्डित करो यारो !
...
क्यों टांग दें खूंटी पे, ऐसी रश्मों को
जो फर्क करती हैं, आदमी-औरत में !
...
तराश के पत्थर, जमीं में गाड़ दो यारो
बन मील का पत्थर, वही राहें दिखाएंगे !!

Wednesday, April 27, 2011

... लव जो खोले, तो सभी रोने लगे !!

सच ! हमें तो लगे ऐसे, जैसे तिलस्मी गहराई हुई है
बिना माया, मायावी शक्तियों के, है मापना मुश्किल !
...
समय रहते संभल जाओ, इतराओ तुम हुश्न पे अपने
सच ! ये काया है मिट्टी की, जाने कब सिकुड़ जाए !
...
क्या कहें, भ्रष्टतंत्र पर, लोकतंत्र का कोई जोर नहीं
सच ! बहुत हो चुका भ्रष्टाचार, बस अब और नहीं !
...
बेकरारी का सबब, हमें मालूम है 'उदय'
क्या करें, फिर भी वहां जाना हमें मंजूर है !
...
कब तलक, आईने से, करें परहेज हम
जब भी देखेंगे, गुनह झलक ही जाएंगे !
...
हमें तो मुल्क ये, चोरों - उचक्कों का लगे है
पंचायत से जेल तक, लुटेरों की लाईन लगी है !
...
चुप हम बैठे थे, बड़ी खामोशियाँ थीं
लव जो खोले, तो सभी रोने लगे !!

ख़्वाबों की ओर !!

पैर, जलते रहे
दर्द, बढ़ता रहा
फिर भी, हम, चलते रहे !

कोई
कहता भी क्या
हम
सुनते भी क्या
सफ़र
चलता रहा
राहें, घटती रहीं
हम
चलते रहे
और, बढ़ते रहे !

हमें
चलना ही था
आगे बढ़ना ही था
चलते रहे, चलते चले !

कभी
सर्द रातें मिलीं
कभी
गर्म राहें मिलीं
हम
रुके नहीं
और, थके नहीं
चलते रहे, चलते चले !

कदम दर कदम
मंजिलों
और, ख़्वाबों की ओर !!

Tuesday, April 26, 2011

..... जय जय जय !

टन टना टन
फन फना फन
ना
चम चमा चम
फट फटा फट
उठ उठा उठ
चल चला चल
लड़ लड़ा लड़
चढ़ चढ़ा चढ़
बढ़ बढ़ा बढ़
जय जय जय !
...
(नोट :- ... ये पंक्तियाँ शोधकर्ताओं, डाक्टरेट की उपाधी की चाह रखने वालों व साहित्यिक मठों के स्थापितों को ध्यान में रख कर लेखन में उतर आईं हैं .... जल्दबाजी में कोई ये न पूंछे कि यह क्या लिख दिया है मैंने ... अनुरोध है गंभीरतापूर्वक भावों को समझने का प्रयास करें ... धन्यवाद ...)

... गुस्सा भी बढ गया, चप्पल भी चल गई !

जलता रहा, जल गया, अब ख़ाक हो गया हूँ
आज भी वजूद मेरा, राख बन हवाओं में है !
...
सारे वतन में, तड़फ और ग़मों का आलम है 'उदय'
हुक्मरानों को, घर की नहीं, पड़ोस की चिंता हुई है !
...
भूल गए, वादे तोड़ गए, चले गए, छोड़ कर हमें
उफ़ ! लगे ऐसे, जैसे वो आज भी चाहते हैं हमें !
...
सब, दोपहर, शाम, रात, उफ़ ! जब देखूं देखता रहूँ
अब तू ही बता मुझको, कब तू अच्छी नहीं लगती !
...
जीते रहे, बेसहारा रहे, अब मर गए, मौज रहेगी 'उदय'
साहित्य सागर में, जिन्दों का नहीं, मुर्दों का बसेरा है !
...
जो लातों के भूत हैं, कैसे बातों में मान लें
गुस्सा भी बढ गया, चप्पल भी चल गई !!

Monday, April 25, 2011

उफ़ ! क्या खूब बस्ती है, और क्या खूब हैं दस्तूर !

उफ़ ! किसी को आज भी, है इंतज़ार तेरा
मकबरे में बैठ के, तुझे पुकारता है कोई !
...
दिवालियेपन की मिशालें अपने आप में बेमिशाल हैं
बहुत लोग दौलतें रख कर भी दिवालिये बने बैठे हैं !
...
आँधी, तूफां, बारिश, रिमझिम-रिमझिम मौसम डोले
तुम भी भीगे, हम भी भीगे, मौसम के हैं हंसी ठिठोले !
...
तेरा मिलना, खुशियों की सौगात सा लगे है
सच ! वजह-बेवजह हमसे मिल लिया करो !
...
क्या कहें, अब हमें इन आँखों पे यकीन नहीं होता
उफ़ ! इनका पैमाना कभी हमें रास आया नहीं है !
...
लंगड़े, लूले, भेंगे, कांणे, कंजे, तिरपट, लम्पट
उफ़ ! क्या खूब बस्ती है, और क्या खूब हैं दस्तूर !

... सवालों के कटघरे / प्रिंट मीडिया पर कडुवा सच !!

Sunday, April 24, 2011

... ये पत्थरों का शहर है, ज़रा संभल के चल !!

उफ़ ! चलो हम मान लेते हैं, जो तुमने कहा है
क्या तुमने भी चाहा है, कभी औरों को सुनना !
...
काश इन पलों में, हम तुम्हारे सांथ होते
दूर से ही सही, पर नज़रों से, तुम्हें छूते !
...
'रब' जाने, कब तलक, तुम्हारी चाह है छपना
दिलों को आस है अब भी, दिलों में राज हो तेरा !
...
तू जब तक थी नहीं मेरी, क्या शिकवा करूं मैं
जब तू हो गई मेरी, फिर क्या शिकवा करूं मैं !
...
तेरी रुस्वाई, बेवफाई, और तेरी बेरुखी का आलम
उफ़ ! बहुत हल्का लगे था, तेरी मुस्कान के आगे !
...
क्या करोगे जान कर, मेरी ज़ुबानी, बातें मेरी
गर फुर्सत मिले, मेरे शब्दों को टटोल लेना !
...
मखमली मौज से, तेरा वास्ता रहा हरदम
ये पत्थरों का शहर है, ज़रा संभल के चल !!

... शहर में कौन नहीं है, जो तुझे जानता नहीं !

मुंह फेर के नहीं, आशिकी में खुद को आजमा रहा है
कहीं, किसी न्यूज एंकर को देख लार टपका रहा है !
...
जब सरहद पार तक, उठती रही निगाह तेरी
फिर बच्चों का कुसूर क्या, दहलीज पार जो हुए !
...
सुनते हैं, चाहतों के मजहब नहीं होते
आशिकी में, उम्र के बंधन नहीं होते !
...
क्या हुआ, जो हम, तुझपे फना हुए
जो हुए थे, उनका ज़रा कुसूर तो बता !
...
किसी ने कर लिया गुनाह, पता पूंछ के तेरा
शहर में कौन नहीं है, जो तुझे जानता नहीं !
...
किसी ने गिरा लिया खुद को, तेरी निगाह में
खता इतनी ही रही, कुछ घड़ी का सांथ चाहा था !

Saturday, April 23, 2011

उफ़ ! हम अपने न रहे, किसी के भी न रहे !!

यादों का सफ़र, तो ताउम्र रहेगा सांथ सांथ
सच ! खुशी तो तब हो, तू चले सांथ सांथ !
...
कभी आँखों, कभी दिल, कभी तेरे होंठों की गुफ्तगू
लगे ऐसे, तेरे सिवाय ये जिन्दगी कुछ भी तो नहीं !
...
तेरी मेरी यादों के निशां, फिजाओं में बिखरे हैं
चाहें, चाहें हम, हमारे सांथ सांथ चलते हैं !
...
वक्त को दोष देना, जिन्दादिली नहीं होगी 'उदय'
हौसला रखें, चलते चलें, सफ़र अभी बांकी है !
...
किसी ने झूठी शान के खातिर गैरों को अपना कह दिया
और जो सामने थे अपने, उफ़ ! उन्हें ही गैर कह दिया !
...
किसी ने आँखें भिगो कर, भूल जाने की गुजारिश की थी
सच ! तब ही से, उन आँखों की नमी मेरे जहन में है !
...
किसी ने प्यार में, इस तरह से ठग लिया है मुझे
उफ़ ! हम अपने रहे, किसी के भी रहे !!

Friday, April 22, 2011

जन लोकपाल बिल : सवालों के कटघरे !

जन लोकपाल बिल को पारित किये जाने तथा जन लोकपाल के गठन को लेकर विगत दिनों अन्ना हजारे ने अपने समर्थकों सहयोगियों के सांथ मिलकर दिल्ली स्थित जंतर-मंतर पर आमरण अनशन रूपी जन आन्दोलन किया, सरकार को अन्ना हजारे की भ्रष्टाचार विरोधी अभियान की मांगे जायज तथा भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए कारगर लगीं, परिणाम स्वरूप सरकार ने मांगों के अनुरूप जन लोकपाल बिल ड्राफ्टिंग समीति का संवैधानिक तौर पर गठन किया किन्तु समीति के गठन के उपरांत से ही राजनैतिक दलों के तथाकथित नेताओं तथा इलेक्ट्रानिक, प्रिंट इंटरनेट मीडिया से जुड़े बुद्धिजीवी वर्ग ने तरह तरह के नकारात्मक सवाल उठाने शुरू किये, कहने का तात्पर्य यह है कि सवालों पे सवाल दागते हुए ड्राफ्टिंग समीति के सिविल सोसायटी के सदस्यों को सवालों के कटघरे में खडा करने का भरपूर प्रयास किया तथा प्रयास जारी भी है

सवाल उठाना सवाल पे सवाल खड़े करना एक सीमा तक तो जायज हैं किन्तु जब ये सवाल भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के समर्थन में होकर अभियान को क्षत-विक्षित करने के भाव से उठ रहे हों तब तो ये सवाल अपने आप में चिंतनीय निरर्थक ही कहे जा सकते हैं जहां तक मेरा मानना है कि जब यह अभियान भ्रष्टाचार को समाप्त करने के उद्देश्य से प्रारम्भ किया गया है तब इस अभियान से जुड़े सिविल सोसायटी के सदस्यों पर सवाल पे सवाल दाग कर सवालों के कटघरे में खडा करने के पीछे का मकसद, अपने आप में भ्रष्टाचार विरोधी अभियान का समर्थन होकर अप्रत्यक्ष रूप से अभियान का विरोध करना ही माना जाएगा चलो कुछ देर के लिए हम मान लेते हैं कि सिविल सोसायटी के सदस्य दागदार छवी के हैं या होंगे, लेकिन इसका यह तात्पर्य तो कतई नहीं लगाया जा सकता कि उनकी मंशा इस भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को दागदार करने की है या होगी, फिलहाल तो यह सर्वविदित सत्य है कि इस समीति के गठन का मुख्य प्रभावशाली उद्देश्य मजबूत ठोस जन लोकपाल के गठन के लिए एक निष्पक्ष पारदर्शी ड्राफ्ट तैयार करना जाहिर है

जहां तक मेरा मानना है कि जब तक जन लोकपाल ड्राफ्ट बिल का तैयार नहीं हो जाता तब तक इसके सदस्यों पर उंगली उठाना न्यायसंगत व्यवहारिक नहीं होगा, वैसे भी सिविल सोसायटी के सदस्यों ने ड्राफ्टिंग कमेटी की मीटिंग्स की वीडियो रिकार्डिंग किये जाने का तर्क निष्पक्ष भाव से रखा था किन्तु उसे अस्वीकारते हुए आडियो रिकार्डिंग की अनुमति दी गई, इससे अपने आप में सिविल सोसायटी के सदस्यों की निष्पक्ष मंशा स्वमेव परिलक्षित हो जाती है जब तक जन लोकपाल ड्राफ्ट तैयार होकर सामने नहीं जाता तब तक ड्राफ्टिंग कमेटी के किसी भी सदस्य पर सवाल उठाना लाजिमी नहीं होगा, जो तथाकथित महानुभाव सवाल पे सवाल खडा कर इस भ्रष्टाचार विरोधी मुहीम को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने का प्रयास कर रहे हैं उन्हें यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि उनका यह नकारात्मक अभियान जनता के समक्ष है तथा संभव है भविष्य में जन आक्रोश का उन्हें भी सामना करना पड़ सकता है, जहां तक मेरा मानना है कि यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि यह भ्रष्टाचार विरोधी अभियान महज अन्ना हजारे या चंद लोगों का अभियान नहीं है वरन देश के हर उस एक एक आदमी का अभियान है जो भ्रष्टाचार के विरुद्ध जंग लड़ रहा है

यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना आवश्यक समझता हूँ कि जो लोग अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान अर्थात जंतर-मंतर पर आयोजित आमरण अनशन कार्यक्रम के प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं वे भली भांति जानते समझते होंगे कि इस अभियान ने महज - दिनों में ही जो भयंकर रूप धारण कर लिया था उसे कोई साधारण अभियान नहीं माना जा सकता, और यदि कोई भी बुद्धिजीवी वर्ग इसे साधारण अभियान अर्थात आन्दोलन मान कर चल रहा है तो उसके आंकलन पर वह खुद ही सवालिया निशान लगा रहा है भ्रष्टाचार के विरोध में जो जन आक्रोश सैलाव उमड़ कर सामने आया था वह कतई नजर अंदाज किये जाने योग्य नहीं है, और यदि राजनैतिक दलों मीडिया से जुड़े बुद्धिजीवी इस जन सैलाव जन आक्रोश को अनावश्यक सवालों के माध्यम से दबाने या दिग्भ्रमित करने की चेष्ठा करते रहेंगे तो मेरा व्यक्तिगत आंकलन यह है कि उनकी यह दुर्भावनापूर्ण चेष्ठा कहीं आग में घी डालने का काम करने लगे तथा परिणामस्वरूप भविष्य में जन आक्रोश का स्वरूप कहीं अधिक भयंकर रूप लेकर उमड़ पड़े

जन लोकपाल का गठन वर्त्तमान भ्रष्टाचार विरोधी अभियान की महज एक महत्वपूर्ण मांग नहीं कही जा सकती वरन यह कहना कहीं ज्यादा मुनासिब होगा कि यह मांग भ्रष्टाचार विरोधी अभियान की एक मजबूत आधारशिला सिद्ध होगी, जन लोकपाल का गठन वर्त्तमान में देश में व्याप्त भ्रष्टाचार से निपटने दोषियों को दण्डित किये जाने हेतु अत्यंत आवश्यक है, ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्यों पर सवाल पे सवाल दागने की अपेक्षा यह हितकर होगा कि ज़रा धैर्य रखा जाए तथा जन लोकपाल के गठन संबंधी ड्राफ्ट की रूप-रेखा की प्रतीक्षा की जाए जन लोकपाल के गठन के पीछे किसी व्यक्ति या संस्था विशेष की कोई दुर्भावना रूपी मंशा नहीं है तथा जन लोकपाल के गठन की प्रक्रिया महज चंद लोगों के लिए लाभकारी न होकर वरन समूचे भारत वर्ष के लिए हितकर है अत: सिर्फ राजनैतिक वरन मीडिया से जुड़े समस्त बुद्धिजीवी वर्ग को धैर्य का परिचय देते हुए भ्रष्टाचार विरोधी अभियान में सकारात्मक पहल का पक्षधर होना चाहिए

... बुझते चिराग हैं, जलते हैं रात भर !!

सच ! जब शर्मसार हो ही गए हैं
फिर क्या शर्म, और क्या बेशर्मी !
...
मौक़ा मिला, भौंकने पे आमदा हो गए
कुत्ते की नस्ल है, कुत्ते की जात है !
...
कोई समझाए हमें, ये कैसा शहर है
कोई ज़िंदा, मुर्दा नजर आए !
...
सच ! कोई है जो आज भी दम-ख़म रखता है
वरना भ्रष्ट व्यवस्था में सब भ्रष्टाचारी हुए हैं !
...
भ्रष्टाचारियों का समर्थन, बुद्धिजीवियों की शान हुई
उफ़ ! शायद आन उनकी चंद सिक्कों में बिक गई !
...
कोई हमें अपना समझ, आया और ठहर गया
उफ़ ! गर जाए, तो उसे कैसे हम जाने कह दें !
...
बूढों को कोई कूडा-करकट समझे
बुझते चिराग हैं, जलते हैं रात भर !!

Thursday, April 21, 2011

... जन लोकपाल / प्रिंट मीडिया पर कडुवा सच !!

तुम किसी हंसी चेहरे पे, और हम वतन पे कुर्बां हैं !!

उफ़ ! जो ढो रहे हैं खुद को, मुर्दा सा भीड़ में
उनकी बिसात क्या है, जिन्दों से लड़ सकें !
...
सुनता हूँ, मैं बहुत बुरा आदमी हूँ
गर चाहो, तुम आजमा लो मुझे !
...
'खुदा' जाने तेरी निगाह से क्या झलके है, प्रेम या गुस्सा
उफ़ ! अब तुम ही सुझाओ, क्या समझें, और क्या नहीं !
...
चल, घट, बढ़, रुक, मत रुक, चलता चल, आगे
तेरा, मेरा, हम सब का, सच ! यही तो जीवन है !!
...
गुनाह कर लिया हमनें, जो तुम्हें हम चाहते रहे
उफ़ ! खता तो की, अब तारीखें भी क़ुबूल हैं हमें !
...
क्या करोगे जान कर, तुम मेरी दिल्लगी की दास्तां
तुम किसी हंसी चेहरे पे, और हम वतन पे कुर्बां हैं !!

Wednesday, April 20, 2011

सच ! मैं गुनहगार तो हूँ पर कसूरवार नहीं हूँ !!

सच ! ये माना तेरी दीद के अपने मिजाज हैं
खुशनसीबी हमारी जो हम शिकायतों में हैं !
...
किसी की बार बार अल्पविराम लगाने की आदत से तंग थे
उफ़ ! करते भी क्या, आज हमने ही पूर्णविराम लगा दिया !
...
जेल की सलाखें, अब आरामगाह बन गईं हैं
सच ! तब ही तो लोग बेख़ौफ़ जुर्म किये हैं !
...
रोजमर्रा की झंझटों से आम आदमी बैकफुट पर है
उफ़ ! ख़ास आदमी फ्रंटफुट के शौक़ीन हुए हैं !
...
सच ! लोकतंत्र की चाल बेढंगी हुई है 'उदय'
तंत्र मजबूत, लोक असहाय नजर आते हैं !
...
हे 'खुदा' ! तेरे सामने है मेरे गुनाहों की किताब
सच ! मैं गुनहगार तो हूँ पर कसूरवार नहीं हूँ !!

... संग संग दोनों, हैं राजा-रानी !!

कविता : राजा-रानी
...
सारी रात
संग संग
जश्न में जश्न
कभी नीचे
तो कभी ऊपर
कभी आर
तो कभी पार
कभी जीते
तो कभी हारे
बाजी पे बाजी
दौर पे दौर
मौज पे मौज
जश्न में जश्न
फिर कौन शहंशाह
और कौन महारानी
संग संग दोनों, हैं राजा-रानी !!

... बुर्के पर प्रतिबन्ध / प्रिंट मीडिया में कडुवा सच !!

Tuesday, April 19, 2011

... चला गया, आफिस की ओर !!

कविता : सांथी

वह शाम को
थका-हारा सा आया
मुझसे मिला, गले लगा
सांथ सांथ खाया-पिया
फिर सारी रात
हौले हौले
वह मुझमें समाता गया
समाया रहा, सारी रात, मुझमें
रात गुज़री
सब हुई
हौले हौले निकला बाहर
हंसता, खिलता, निखरता
मुझे निहारता, पुचकारता
फिर, स्नान-ध्यान कर
सुबह का नाश्ता कर
मुझे चूमते-चामते
हाँथ में ब्रीफकेस उठा
रोज की तरह, फिर
चला गया, आफिस की ओर !!

Monday, April 18, 2011

न्यायपालिका और जन लोकपाल !

भ्रष्टाचार ने लोकतंत्ररूपी ढाँचे को दीमक की तरह अपनी चपेट में ले लिया है, यह कहना आश्चर्यजनक नहीं होगा कि वर्त्तमान में लोकतंत्र के सभी धड़े भ्रष्टाचार की चपेट में हैं, लोकतंत्ररूपी ढाँचे का एक धडा 'न्यायपालिका' जिससे यह आम अपेक्षा रहती है कि यह धडा असामान्य हालात में भी निष्पक्ष रूप से कार्य संपादित करेगा किन्तु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि विगत कुछेक वर्षों से न्यायपालिका भी भ्रष्टाचार से अछूती नहीं रही है न्यायपालिका जिसे न्याय का मंदिर कहा जाता है जहां अन्याय, दुर्भावनाएं, पक्षपात, भाई-भतीजावाद जैसे कृत्यों की अपेक्षाएं एक तरह से वर्जित हैं, किन्तु भ्रष्टाचाररूपी कीड़े ने इन समस्त वर्जनाओं को भी धवस्त कर दिया है, न्याय के मंदिर में भ्रष्टाचार ने जिस गति से प्रवेश विस्तार किया है वह अपने आप में आश्चर्यजनक ही कहा जा सकता है वर्त्तमान में भ्रष्टाचार की चपेट में सिर्फ निचले स्तर की न्यायपालिकाएं वरन उच्च न्यायपालिकाएं भी अछूती नहीं कही जा सकती लोकतंत्र के अति महत्वपूर्ण आधार स्तम्भ 'न्यायापालिका' में समय समय पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं सिर्फ आरोप ही नहीं लगते रहे वरन भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों को समय समय पर कठोर दंडात्मक कार्यवाही स्वरूप सेवा से निवृत भी किया जाता रहा है सवाल यह नहीं है कि भ्रष्टाचार के आरोप लगना और भ्रष्टाचारियों को सेवा से निवृत कर देना या फिर भ्रष्टाचारियों को दंडात्मक कार्यवाही वतौर वर्त्तमान पद से रिवर्ट कर देना समाधानात्मक कार्यवाही है, वरन सवाल यह है कि न्याय के मंदिर में भ्रष्टाचार की जड़ें क्यों कैसे फल-फूल रही हैं

न्यायपालिकाओं में भ्रष्टाचार की घुसपैठ अचंभित कर देने वाली अर्थात आश्चर्यजनक नहीं कही जा सकती, क्योंकि जब सारे के सारे लोकतंत्र में भ्रष्टाचार रूपी दानव विशालकाय रूप ले रहा हो तब लोकतंत्र का कोई भी एक धडा उससे अछूता कैसे रह सकता है न्यायपालिकाओं में भ्रष्टाचार की घुसपैठ सामान्य सहज कतई नहीं कही जा सकती, तात्पर्य यह है कि न्यायपालिकाओं में भ्रष्टाचार रूपी कीड़े ने सीधे दरवाजे से प्रवेश करते हुए संभवत: दांय-बांय के रास्ते से प्रवेश करने का प्रयास किया है, कहने का तात्पर्य यह है कहीं कहीं नियुक्तियां पदस्थापनाएं इस भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार मानी जा सकती हैं लोकतंत्र के अति महत्वपूर्ण स्तम्भ न्यायपालिका में भ्रष्टाचार अत्यंत चिंतनीय दुर्भाग्यपूर्ण है किन्तु इस अंग में भ्रष्टाचार के फैलाव के लिए न्यायपालिका को प्रत्यक्ष रूप से उतना जिम्मेदार नहीं माना जा सकता जितना कि वर्त्तमान सत्तारूढ़ राजनैतिक सिस्टम को अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार माना जाए, उसका कारण यह है कि न्यायपालिका के महत्वपूर्ण प्रभावशाली पदों पर नियुक्तियां पदस्थापनाएं सत्तारूढ़ राजनैतिक व्यवस्था के मंशा के अनुकूल ही होती रही हैं अत: यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि न्यायपालिकाओं में वर्त्तमान समय में भ्रष्टाचार के लिए सत्तारूढ़ राजनैतिक व्यवस्थाएं कहीं कहीं अधिक जिम्मेदार मानी जा सकती हैं

लोकतंत्र रूपी ढाँचे के महत्वपूर्ण अंग न्यायपालिका में भ्रष्टाचार अहम् गंभीर मसला है अत: इस चर्चा के महत्वपूर्ण मुद्दे पर आते हैं असल मुद्दा यह है की वर्त्तमान में देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को समाप्त करने के उद्देश्य से 'जन लोकपाल बिल' पर अहम् चर्चा चल रही है तथा इसी चर्चा के क्रम में तरह तरह के विचार सुनने पढ़ने में रहे हैं इसी क्रम में न्यायपालिका में तथाकथित रूप से व्याप्त भ्रष्टाचार पर भी अहम् चर्चा चल रही है कुछेक विद्धानों का मत है कि न्यायपालिका के सर्वोच्च पदों को इस बिल से पृथक रखा जाए तो कुछेक विद्धान इन पदों को भी जन लोकपाल के दायरे में रखने के पक्षधर हैं यहाँ पर मेरा मानना यह है कि जब तक न्यायपालिका के महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियों पदास्थापनाओं में राजनैतिक हस्तक्षेप की गुंजाइश रहेगी तब तक भ्रष्ट आचरण की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता, यह दुर्भाग्य जनक स्थिति सिर्फ न्यायपालिका वरन देश के किसी भी अन्य उच्च पदस्थ पद पर नियुक्तियाँ पदस्थापनाएं जिनमें राजनैतिक हस्तक्षेप प्रभाव रहेगा वहां गुंजाइश बनी रहेगीअत: यह अत्यंत आवश्यक होगा कि सिर्फ कार्यपालिका, व्यवस्थापिका, न्यायपालिका वरन देश में संचालित समस्त आयोगों को भी जन लोकपाल के दायरे में रखा जाना जनहित में आवश्यक महत्वपूर्ण होगा

... उफ़ ! तुम्हें देखना भी अब गुनाह है हुआ !!

गर औरत होना गुनाह है तो सुनो, मैं गुनहगार हूँ
जन्म देकर भी तुझे पोसा, सच ! मैं गुनहगार हूँ !
...
कभी फुर्सत निकाल के पूंछना खुद से
क्या मिला है तुझे, भूल कर मुझको !
...
वक्त की चाल में जो हम उलझे
इधर के रहे, उधर के रहे !
...
कब जोर और कब जोर-जबरदस्ती की हमने
उफ़ ! तुम्हें देखना भी अब, गुनाह है हुआ !!
...
अजब दस्तूर, रश्म--रिवाज हो चले हैं आशिकी के
सिवाय समझौते के, कहीं कुछ दिखता नहीं हमको !
...
उफ़ ! कौन कहता है बंजर जमीं पे फूल खिल नहीं सकते
हौसले और जज्बे की मेहनत को, हर कोई समझे कैसे !

Sunday, April 17, 2011

सपने ...

तेरे सपने, मेरे सपने
इन आँखों के सच्चे सपने !

दूर गगन के जगमग तारे
जगमग करते सारे अपने !

फूल खिले हैं बगिया में
उन फूलों की खुशबू अपनी !

नदियों में बहता है पानी
उस पानी में मछली अपनीं !

पवन है बहती पास गगन में
उसमें उड़तीं चिड़ियाँ अपनी !

तेरे सपने, मेरे सपने
इन आँखों के सच्चे सपने !!

Saturday, April 16, 2011

... गर जरुरत न रहे, तो वे खुद ही 'खुदा' होते हैं !!

'खुदा' की रहमत ने, सच ! बाजीगर बना दिया है मुझे
कदम कदम पर जिन्दगी, किसी बाजी से कम नहीं !
...
मेरी इबादत ने, उसे देवी बना दिया था 'उदय'
जब से छोड़ दी इबादत मैंने, वो सड़क पे है !
...
कब तलक लड़ते रहेंगे, भाषाओं की ज़ुबानी जंग
कहीं कुछ फर्क नहीं दिखता, तेरे मेरे जज्बातों में !
...
सुकूं की चाह में, श्मशान में जा बैठे थे
कहां था इल्म, वहां भी सुकूं नहीं होगा !
...
'रब' जाने, क्या संभव और क्या असंभव है
सच ! हम तो चलते हैं, बस चले चलते हैं !
...
सच ! मौके मौके पे, वो मुझे याद कर लेते हैं
गर जरुरत रहे, तो वे खुद ही 'खुदा' होते हैं !!

... ख़्वाब रचे थे, मैंने भी !!

एक दिन, बैठे बैठे
ख़्वाब रचे थे, मैंने भी
सच ! उन ख़्वाबों में
सरल, सहज, सुलभ
संसार, बसाया था मैंने
भाईचारा, प्रेम, मिलन
के सारे बंधन, बांधे थे
जात, धर्म, रंग, रूप
ऊंच-नींच, नर-नारी में
भेद, नहीं रख छोड़े थे
एक दिन, बैठे बैठे
ख़्वाब रचे थे, मैंने भी !!

Friday, April 15, 2011

... अन्ना हजारे !!

उम्र तिहेत्तर
नाम
है अन्ना
कमर में धोती
बदन
पे कुर्ता
सिर पे टोपी शान है
चल पडा है, लड़ पडा है
जन, गण, मन, के खातिर
फैले भ्रष्टाचार से !
भ्रष्ट, भ्रष्टतम, भ्रष्टाचारी
चक्रव्यूह
हैं गढ़ने वाले
गढ़ पाएं, चक्रव्यूह वो
हमें, एक ऐसी अलख जगाना है
लड़ना है, लड़ जाना है
फैले भ्रष्टाचार से
चलो, चलें
हम सब मिलकर
हिम्मत, जज्बा, कदम, मिला दें
संग अन्ना के, कदम बढ़ा दें
लड़ लें, जीत लें, हम, फैले भ्रष्टाचार से !!

तुम क्या हो ...

तुम क्या हो ...
मैं समझना चाहता हूँ !
कभी तुम में, दिखती है, मुझे
सूर्य सी गर्मी
कभी तुम
चाँद सी शीतल लगे हो !

तुम क्या हो ...
कभी तुम एक-सी, दिखती नहीं मुझको
कभी देखा, तुम
झरने सी खिल-खिल, बहती लगे हो
तो, कभी, फिर
झील-सी गहरी लगे हो !

तुम क्या हो, क्यों हो
यही, मैं समझना चाहता हूँ
कभी छू-कर
मुझे, तुम छाँव सी शीतल करे हो
तो, कभी, फिर
छूकर, मुझे
तुम आग का शोला करे हो !

तुम क्या हो, क्या-क्या, नहीं हो
कभी तुम, रात में, मुझको
काम की देवी लगे हो
सुबह देखूं, तो तुम मुझको, फिर
लक्ष्मी की मूरत लगे हो !

तुम क्या हो ...
बताओ, तुम, खुद मुझे ही
या, फिर, मुझे
तुम, कुछ घड़ी का वक्त, जज्बा, हौसला, दे दो
मैं तुम में डूबकर, तुम्हें समझना चाहता हूँ !

कि -
तुम, क्यों, मुझे
चाँद, सूरज, धरा, अम्बर, नीर, पवन, पुष्प, सुगंध
नारी, अप्सरा, देवी, सी लगे हो !!

Thursday, April 14, 2011

खामोशी !!

कब तक मैं खामोश बैठता
कई घंटों से बैठा था
सोच रहा था, क्या ना जाने
क्या धुन थी खामोशी की !

बैठे बैठे सोच रहा था
डूबा था खामोशी में
क्यों और कैसा, था सन्नाटा
क्या धुन थी खामोशी की !

कब से मैं खामोश रहा था
और कब तक खामोशी थी
ये मुझको भी खबर नहीं थी
क्या धुन थी खामोशी की !

कुछ घंटों से देख रहा था
सदियों सी सरसराहट थी
कुछ बैचेनी, कुछ हलचल थी
क्या धुन थी, खामोशी की !!

... कोई जागा, सवालों के कटघरे में है !!

जात-पात की डमरू देखो, बज रही है चारों ओर
झूम रहे हैं, नांच रहे हैं, जात-पात के ठेकेदार !
...
जिन्होंने जन्म लिया है भ्रष्टाचार की कोख से
उफ़ ! वे नहीं मानेंगे, वे बहुत संस्कारी हुए हैं !
...
सच ! जुल्म होते रहे, लोग सहते रहे
कोई जागा, सवालों के कटघरे में है !
...
खुदगर्जी का है आलम जहां में, खुदगर्जी की सौगातें हैं
खुदगर्जी के रिश्ते-नाते, और है खुदगर्जी का याराना !
...
सच ! किसी के कद से, उसकी उम्र का अंदाजा लगाया जाए
बेहतर होगा, क्यों उसके जज्बे और इरादे भांप लिए जाएं !
...
दिल की कहते रहे, दिल की सुनते रहे
जब जब मौक़ा मिला, दोनों खामोश रहे !
...
होने को तो हूँ मैं, यहीं कहीं
होने को, फिर कहीं नहीं हूँ !
...
सोचने मजबूर हूँ, क्यूं तुझे चाहा सदा
और भी तो थे बहुत, मेरी तनहा राह में !
...
भूल मैं बैठा था खुद को, एक तेरी ही चाह में
नींद से जागा लगे है, जब से ठोकर खाई है !
...
मेरी राहों में सनम, अब तुम आया करो
जख्म जो तुमने दिए थे, अब हैं वो भरने लगे !

Wednesday, April 13, 2011

... बंद करो, बंद करो अब भ्रष्टाचार !!

कविता : भ्रष्टाचार

बहुत हो चुका भ्रष्टाचार
बहुत हो चुका अत्याचार
बहुत खुल चुके चोर बाजार
बहुत हो चुके मालामाल
बहुत हो चुकी टैक्स की चोरी
बहुत बिक चुके नेता-अफसर
बहुत बन गईं सरकारें हैं
बहुत हो गई कालाबाजारी
बहुत हो गई मिलावटखोरी
बहुत हो चुका माफियाराज
बहुत हो गया शिष्टाचार
चहूं ओर है फैला जग में
भ्रष्ट, भ्रष्टतम, भ्रष्टाचार
बंद करो, अब बंद करो
बंद करो अब भ्रष्टाचार !!

कांव कांव का शोर बढ़ा है जग में यारो ..... !!

सच ! भ्रष्टता की कीचड में सने हैं लोग
लोकतंत्र रूपी इत्र भी, हुआ है बेअसर !
...
कभी कभी पढ़ लेते हैं, हम भी दर्द की किताबें
सच ! होता है हर फलसफे पे, नाम तुम्हारा ही !
...
बाअदब तेरी खुबसूरती अदाओं को सलाम
ये मंजर, ज़रा ठहरे रहें तो हमें सुकून मिले !
...
कांव कांव का शोर बढ़ा है जग में यारो
कोई बताए मंशा इनकी हमको यारो !
...
डर, नफ़ा, नुक्सान के चक्कर में क्यों छिपते फिरें
सच ! जो भी है मेरा, सारे जग में बिखरा पडा है !
...
सच ! जो मन में आता है, लिख देता हूँ
पढ़ने वाले जानें, कि मैं क्या लिखता हूँ !
...
रात-दिन मीडिया के सवालों में, उलझ कर
सच ! मुमकिन है थोड़ा-बहुत बहक जाना !
...
सच ! दोनों हैं मझधार में, सोचें पार लगेंगे कैसे
भ्रष्टाचार विरोधी आंधी, देख देख आँख हैं मीचे !

Tuesday, April 12, 2011

फ्रांस में बुर्के पर प्रतिबन्ध जल्दबाजी का फैसला !

यूरोप के फ्रांस देश में विगत दिनों महिलाओं के बुर्के पहनने पर कानूनी रूप से रोक लगा दी गई है नए क़ानून के तहत सार्वजनिक स्थल पर बुर्का पहने पाए जाने पर १५० यूरो अर्थात ९००० रुपये के जुर्माने से दण्डित किया जाएगा फ्रांस में निवासरत मुसलमानों ने इस निर्णय का कडा विरोध जाहिर किया है तथा आगे भी इस निर्णय का विरोध करने का फैसला लिया है, गौरतलब हो कि फ्रांस में लगभग ५० लाख मुसलमान रहते हैं जो किसी भी अन्य यूरोपीय देश की तुलना में अधिक हैं कुछेक कट्टर समर्थकों ने इस फैसले का घोर विरोध किया है तो वहीं दूसरी ओर कुछेक लोगों का यह भी कहना है कि वे बुर्का पहनने का समर्थन नहीं करते किन्तु प्रतिबंधित किये जाने के फैसले से सहमत नहीं हैं

सिर्फ फ्रांस में वरन समूचे विश्व में मुस्लिम महिलाओं में बुर्का पहनने की परम्परा है जो आज की नहीं वरन सदियों से चली रही परम्परा है, इसलिए मेरा मानना है कि यदि मुस्लिम महिलाएं स्वैच्छिक रूप से बुर्का पहनने को प्राथमिकता देती हैं तो इसे कतई प्रतिबंधित नहीं किया जाना चाहिए, सांथ ही सांथ यह भी गौर किये जाने वाली बात है कि २१ वीं शताब्दी में यदि जोर दवाव पूर्वक महिलाएं बुर्का पहनने को मजबूर हैं तो यह मसला गहन विचारणीय है । ये माना कि वर्त्तमान समय में बढ़ रही आतंकी घटनाओं को ध्यान में रखते हुए तथा सुरक्षागत कारणों के मद्देनजर समय समय पर सुरक्षा एजेंसियों को कड़े कदम उठाने पड़ते हैं किन्तु इसका यह मतलब कतई नहीं होना चाहिए कि सुरक्षा एहतियात के लिए मानव अधिकारों की बली चढ़ा दी जाए

सिर्फ फ्रांस वरन दुनिया के तमाम मुल्कों में तरह तरह की पोशाकें पहनने का रिवाज सदा-सदा से चला रहा है, खासतौर पर सिर्फ बुर्का ही नहीं वरन धोती, लुंगी, साड़ी, पगड़ी, इत्यादि ऐसे लिबास हैं जो सदियों से पहने जा रहे हैं जिनसे मानवीय, धार्मिक सांस्कृतिक आस्था जुडी हुई है अत: इन लिबासों को तथा इसी तरह के अन्य लिबासों को एका-एक संदेह के दायरे में खडा कर देना लाजिमी नहीं होगा वैसे मेरा मानना है कि सदियों से चली रही परम्पराओं पर एका-एक प्रतिबन्ध लगाते हुए वर्त्तमान हालात समस्याओं के मद्देनजर कुछेक दिशा निर्देश जारी किये जाने चाहिए जो वर्त्तमान समय तथा सदियों से चली रही परम्पराओं के बीच समन्वय स्थापित करें तथा एक सेतु की भांति सार्थक सिद्ध हों !

सच ! ये तूफां हैं, सरकारें उड़ा देंगे !!

गिर तो गए थे, बहते बहते, लगे हम किनारे
सच ! गर डूबे होते, तो ये मंजिल होती !
...
रहने दें, किस किस को रहने दें, और क्यों रहने दें
उफ़ ! कल कोई कहे, जाने दे, रहने दे, जान ही तो है !
...
सच ! अभी तो शुरू हुए हैं झड़ना, पत्ते दरख़्त के
गर ऐसा हुआ तो, जड़ से उखड़ना तय ही लगे है !
...
इन हवाओं को कोई झौंके समझे
सच ! ये तूफां हैं, सरकारें उड़ा देंगे !
...
जलना था हमें, हौले हौले जहां में उम्र भर
घोर अंधेरों में, चिराग बन जो जल रहे थे !
...
कांव-कांव सुन लो, कऊओं की आज तुम
वो घड़ी भी आयेगी वे फडफडा पायेंगे !
...
सच ! हम जाग रहे थे सोते सोते, उन नींदों का कहना क्या
कोई सो रहा था सुनते सुनते, उसको किस्सा कहना क्या !
...
नौंक-झौंक, ताक-झांक, चिल्ल-पौं, कचर-पचर, गाली-गुल्ला
उफ़ ! कोई माने या माने, शायद जिन्दगी इसी को कहते हैं !

अंधकार ...

चंहू ओर
तुम नजर उठाओ
देखो
आंगन, गलियां, बस्ती
सारे जग में
काली रातें, घोर अन्धेरा
और कहीं
कुछ दिखता है क्या ?
मत फूंको
तुम दीपक को ...
बहुत है फैला
अंधकार
जलने दो, जल जाने दो !!

...... दैनिक छत्तीसगढ़ के सम्पादकीय पेज पर 'कडुवा सच' !

Monday, April 11, 2011

मर्जी के मालिक ...

मानते, तो क्या करते
चलो, मान लिया
मानना था !
क्या रक्खा था
फिजूल की बहसों में
गुनाह हो जाता
गर, हम मानते !

चलो अच्छा हुआ, जो हुआ
कोई तो खुश है
किसी को तो सुकून मिला !
पहले कितने बुरे थे, हम
तर्क, वितर्क, कुतर्क
लगते थे करने
पर, बदल गए, समय, काल, हम !

चलो, काम आए
हम, आज किसी के
पहले
सुनते नहीं थे, किसी की
हुआ करते थे
मालिक -
हम अपनी मर्जी के !!

...... दैनिक जागरण में कडुवा सच !!

Sunday, April 10, 2011

भ्रष्टाचार : त्राहिमाम त्राहिमाम !

भ्रष्टाचार एक ऐसी जन समस्या है जिससे समूचा भारत वर्ष हलाकान है लगभग हरेक आम आदमी के जहन में भ्रष्टाचार का खौफ व्याप्त है कुछेक ख़ास लोगों को छोड़ दिया जाए तो समूचा देश त्राहिमाम त्राहिमाम है, भ्रष्टाचार कहने को तो एक समस्या ही है किन्तु मैं इसे एक साधारण समस्या मानकर विकराल महामारी मान के चलता हूँ ऐसा मेरा मानना है कि भ्रष्टाचार एक महामारी है जिसकी चपेट में आकर बड़ी बड़ी योजनाएं, रूपरेखाएं, परियोजनाएं, साकार रूप लेने के पहले ही दम तोड़ती दिखाई देतीं हैं, इसके जीते जागते उदाहरण कामनवेल्थ गेम्स, आदर्श सोसायटी, जी स्पेक्ट्रम घोटाले हैं ये तो भ्रष्टाचार के बेहद साधारण उदाहरण हैं जिनकी चपेट में मात्र सरकारी धन का स्वाहा हुआ है, भ्रष्टाचार के असाधारण उदाहरण हम उन्हें मान सकते हैं जिनकी चपेट में आकर आम जनजीवन प्रत्यक्षरूप से प्रभावित होता है, ग्राम पंचायत, जनपद, नगर पंचायत क्षेत्र में चल रहीं सरकारी योजनाएं, नरेगा, पीएमजेएसवाय, मध्यान्ह भोजन, बीपीएल कार्ड योजना, आंगनबाडी केंद्र, इत्यादि योजनाओं में चल रहे तथाकथित भ्रष्टाचार की चपेट में सीधे तौर पर आम जनजीवन है देश में शहरी ग्रामीण दोनों क्षेत्र में भ्रष्टाचाररूपी वायरस फ़ैल चुका है जो दिन--दिन लोकतंत्ररूपी ढांचे को क्षतिकारित कर रहा है, सिर्फ सरकारी क्षेत्रों में ही नहीं वरन व्यवसायिक सामाजिक लगभग हरेक क्षेत्र में भ्रष्टाचार वृहद पैमाने पर फल-फूल रहा है, कालाबाजारी, जमाखोरी मिलावटखोरी भी भ्रष्टाचार के ही नमूने हैं

भ्रष्टाचार रूपी महामारी पर जब जब चर्चा परिचर्चा होती है और वजह तलाशी जाती है कि आखिर इस महामारी की जड़ क्या है, कौन इसके लिए जिम्मेदार है, चर्चा शुरू तो होती है पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के पहले ही दम तोड़ती नजर आती है, चर्चा का दम तोड़ना महज इत्तेफाक नहीं कहा जा सकता, वो इसलिए कि भ्रष्टाचार के लिए शुरुवाती स्तर पर भ्रष्ट राजनैतिक सिस्टम को जिम्मेदार ठहराया जाता है, फिर सरकारी मोहकमों को, फिर संयुक्तरूप से दोनों को अर्थात भ्रष्ट नेता-अफसर दोनों को जिम्मेदार माना जाता है, किन्तु चर्चा के अंतिम पड़ाव तक पहुंचते पहुंचते भ्रष्टाचार के लिए आम जनता को दोषी ठहरा दिया जाता है, आम जनता को दोषी ठहराने के पीछे जो तर्क दिए जाते हैं वह भी काबिले तारीफ होते हैं काबिले तारीफ़ इसलिए कहूंगा, तर्क यह होता है कि यदि जनता रिश्वत देना बंद कर दे तो भ्रष्टाचार स्वमेव समाप्त हो जाएगा अर्थात जनता रिश्वत दे, रिश्वत मांगने वालों का विरोध करे, कालाबाजारी मिलावटखोरी का विरोध करे, भ्रष्टाचार से जनता लड़े तो भ्रष्टाचार की हिम्मत ही कहां जो पांव पसार सके सीधे तौर पर कहें तो चर्चा-परिचर्चा पर भ्रष्टाचार के लिए आमजन को ही जिम्मेदार मान लिया जाता है तात्पर्य यह कि देश में व्याप्त भ्रष्ट व्यवस्थाओं के लिए कहीं कहीं आम जनता ही जिम्मेदार है

भ्रष्टाचार के लिए प्रत्यक्ष रूप से आमजन को जिम्मेदार मानते हुए अक्सर यह तर्क भी दिए जाते हैं कि ट्रेन में सफ़र करते समय आम आदमी रिजर्वेशन के लिए २००, ३००, ४००, रुपये बतौर रिश्वत क्यों देता है यदि रिश्वत दे तो ट्रेन में व्याप्त भ्रष्टाचार स्वमेव समाप्त हो जाएगा ठीक इसी प्रकार सड़क पर जब किसी आम नागरिक की गाडी ट्रेफिक पुलिस द्वारा रोक ली जाती है तब आमजन १००, २०० रुपये दे-ले कर बच निकलने का प्रयास करता है और सफल भी हो जाता है, यहां पर तर्क यह दिया जाता है आमजन आखिर रुपये देता क्यों है ? तात्पर्य यहां भी वह ही भ्रष्टाचार के लिए दोषी ठहरा दिया जाता है इसी क्रम में जब आमजन को जाति प्रमाणपत्र या निवास प्रमाणपत्र बनवाने के लिए हजार, पांच सौ रुपये खर्च करने पड़ते हैं तब भी वह ही दोषी माना जाता है हद की स्थिति यहां भी नजर आती है जब म्रत्यु प्रमाणपत्र बनवाने, पेंशन फ़ाइल को आगे बढ़वाने, इंश्योरेंश क्लेम के लिए, पोस्ट मार्ड के लिए तथा अन्य सभी तरह के प्रशासनिक कार्यवाहियों के क्रियान्वन के लिए रुपयों का जो अनैतिक लेन-देन होता है उसके लिए भी आमजन को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है

सच ! चलो कुछ पल को इन तर्कों को पढ़-सुन कर हम मान लेते हैं कि भ्रष्टाचार के लिए आमजन जिम्मेदार है सांथ ही सांथ यह सवाल भी उठता है कि इन गंभीर तर्कों को सुनकर हम आमजन को दोषी क्यों मानें ! यहां पर मेरी विचारधारा सोच इन तर्कों से ज़रा भिन्न है और आगे भी रहेगी, वजह यह है कि हम घटनाक्रम के सिर्फ एक पक्ष पर ध्यान दे रहे हैं कि आमजन ने रिश्वत के रूप में रुपये दिए हैं इसलिए वह जिम्मेदार है, किन्तु हम दूसरे पक्ष को नजर अंदाज कर देते हैं कि आमजन ने रुपये आखिर क्यों दिए ! क्या वह खुशी खुशी रुपये लुटा रहा था या उसके पास रुपयों की कोई खान निकल आई थी जिसे कहीं कहीं तो खर्च करना ही था तो ऐसे ही सही, या फिर उसे कोई ऐसा अलादीन का जिन्न मिल गया था जो इस शर्त पर उसे रुपये दे रहा था कि आज के रुपये आज ही खर्च करने होंगे ! कुछ कुछ ऐसी आश्चर्यजनक वजह तो जरुर ही होगी अन्यथा एक आम निरीह प्राणी क्यों रिश्वत देगा ! जहां तक मेरा मानना है कि उपरोक्त में से ऐसी कोई भी वजह नहीं है जिसके लिए आमजन को भ्रष्टाचार के लिए दोषी ठहराया जाए, मेरा स्पष्ट नजरिया यह है कि आमजन अर्थात अपने देश का एक आम आदमी, वर्त्तमान मंहगाई के समय में जिसके जीवन-यापन के खुद ही लाले पड़े हुए हैं वह बेवजह रुपये क्यों बांटेगा, वह हालात से तंग आकर, मजबूर होकर, व्यवस्था से त्रस्त होकर, मरता क्या करता वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए किसी भी तरह के भटकने विलंब से बचने के लिए तथा सांथ ही सांथ तरह तरह के मुश्किल हालात से बचने के लिए ही ले-दे कर अपना काम निपटाना चाहकर इस भ्रष्ट उलझन में उलझ जाता है एक आम आदमी वर्त्तमान भ्रष्टाचार के लिए कतई जिम्मेदार नहीं माना जा सकता, और ही वह जिम्मेदार है, अगर कोई जिम्मेदार है तो वे ख़ास सक्षम लोग जिम्मेदार हैं जिन्होंने भ्रष्टाचार को शिष्टाचार बना कर रखा हुआ है ! इन हालात को बयां करता एक शेर - "मजबूरियों को भ्रष्टाचार का नाम दो यारो / सच ! सीना तनने लगेगा भ्रष्टाचारियों का !"