Saturday, October 27, 2018

कविताएँ लिखना एक जोखिम का काम है ?

01

आपको एक अच्छा कवि बनने के लिए
संपादक, प्रकाशक, मालिक या
इनसे भी बड़ा स्वयंभू होना जरूरी होगा

यदि आप
इनमें से कोई एक भी नहीं हैं तो

तो भी कोई बात नहीं
आप कविताएँ लिखते रहें
शायद
आपकी किसी कविता को पढ़कर
इनमें से किसी के रौंगटे खड़े हो जाएं

या किसी को इतना विचलित कर दे कि वो
आपको
कवि मानने को मजबूर हो जाये

लेकिन
ऐसा कब होगा
इसकी कोई गारंटी नहीं है
सच कहूँ तो
कविताएँ लिखना एक जोखिम का काम है ??

02

किसी के रूठने की, कोई हद तो होगी
या ये सफर ....... यूँ ही चलता रहेगा ?

03

ये कौन किसे मार रहा है
राम रावण को, या रावण रावण को ?

ये कौन भ्रम में है
तू, मैं, या कोई और .... ??

एक रावण जो -
तुम्हारे भीतर है, मेरे भीतर है, हर किसी के भीतर है
उसे कौन -
पाल-पोष रहा है .... ???

04

इल्जामों की फिक्र किसे है 'उदय'
फिक्र तो इस बात की है कि अदालतें उनकी हैं !

05

कैसा गुमां, कैसा गुरुर, और कैसी मगरूरियत
बस, मिट्टी से मिट्टी तक का सफर है ?

06

खामोशियाँ भी जुर्म ही हैं अगर
खामोशियाँ सत्ता की हैं ?

07

कुछ झूठ, कुछ फ़रेब,
कुछ ऐसी ही मिली-जुली फितरत है उसकी,

मगर फिर भी
वो खुद को 'खुदा' कहता है ?

08

न दुख के बादल थे औ न ही गम की घटाएँ थीं मगर
रिमझिम-रिमझिम बरस रही थीं तकलीफें !

09

चाँद का चाँद-सा होना लाज़िमी था
मगर मुस्कान उसकी उससे जियादा कातिलाना थी ?

( लाज़िमी = उचित )

10

आज बाजार में गजब की चिल्ल-पों है 'उदय'
लगता है किसी बेजुबाँ की नीलामी है शायद ?

~ उदय 

Thursday, October 18, 2018

औरत देवी है .... !

01

बड़े अजब-गजब थे फलसफे जिंदगी के
न सहेजे गए, न भूले गए !

( फलसफे = दर्शन शास्त्र, तर्क, ज्ञान, अनुभव )

02

शह और मात का खेल है सियासत
कभी घोड़ा मरेगा, कभी हाथी मरेगा, कभी राजा मरेगा !

03

लोग कहते हैं 'उदय' तुम भी 'खुदा' हो जाओ
सोचता हूँ, करेंगे क्या 'खुदा' होकर ?

न तो मस्जिद
न मजार
और न ही कोई मकबरा है अपने मिजाज सा

रही-सही एक मुहब्बत है अपनी
कहीं वो भी न छिन जाए
तुम्हारे सुझाये 'खुदाई' चक्कर में

वैसे भी, शहर तो भरा पड़ा है, पटा पड़ा है
स्वयंभू 'खुदाओं' से

एक हम 'खुदा' न हुए तो क्या हुआ !!

कदम-कदम पर तो
'खुदा' मिलते हैं, बसते हैं, शहर में अपने !!!!!

04

हम उन्हें संवारते रहे और वो हमें उजाड़ते रहे
कुछ इस तरह, तमाम दोस्त अपने ही रकीब निकले !

सिलसिले दोस्ती के ठहर गए उस दिन
जिस दिन दोस्त अपने ही आस्तीन के साँप निकले !!

05

फुटपाथ पे होकर भी नजर चाँद पे थी
उसके ख्वाबों की कोई इन्तेहा तो देखे ?

06

तलवे चाट लो
या घुटने टेक दो, या दुम हिला लो

या नतमस्तक हो जाओ
बात एक ही है

मतलब
तुमने गुलामी कबूल ली !!

07

विकल्प है तो ठीक है
अगर नहीं है
तब भी एक विकल्प ढूँढ लिया जाता है

गर किसी ने यह भ्रम पाल लिया है कि
अवाम के पास विकल्प नहीं है
इसलिए
वह अजेय है
तो यह उसकी नादानी है

विकल्प -
लंगड़ा, लूला, काना ... भी हो सकता है !

08

बामुश्किल ही सही, ढही तो, एक गुंबद गुनह की
वैसे तो, सारा किला ही गुनहगार दिखे है ?

09

औरत देवी है, सर्व शक्तिशाली है
आदिशक्ति है
पूजी जाती है, पूज्यनीय है

इतना ढोंग काफी है
औरत के
शोषण करने के लिए .... ??

~ उदय

Thursday, October 11, 2018

दोज़ख के ख्याल से सिहर उठता हूँ !

01

दिल भी, कुछ आशिक मिजाज हो रहा है आज
या तो मौसम का असर है, या फिर कोई पास से गुजरा है !

02

लोग, सदियों से छले जाते रहे हैं
आगे भी छले जाएंगे

पहले राजनीति की बुनियाद में छल था
अब सत्ता भी छल युक्त हो गई है

अब,
लोगों को भी छलने की कला सीखनी होगी
नहीं तो
लोग हारते रहेंगे !

03

वो.. कुछ झूठे.. कुछ सच्चे.. ही अच्छे हैं
एक से लोग, हर घड़ी अच्छे नहीं लगते !

( एक से लोग = एक स्वभाव के लोग अर्थात जिनका स्वभाव हर समय एक जैसा होता है ... से है )

04

लौट कर आएंगे, वो ऐसा कह कर गए हैं
क्यों न इस झूठ पर भी एतबार कर लिया जाए !

05

गर तुम चाहो तो मैं कुछ कहूँ वर्ना
सफर खामोशियों का, कहाँ उत्ता बुरा है !

06

इल्जाम उनके रत्ती भर भी झूठे नहीं हैं लेकिन
उनकी म्यादें बहुत पुरानी हैं ?

07

मसला शागिर्दगी का नहीं है 'उदय', उस्तादी का है
कोई, कैसे, किसी... पैंतरेबाज को 'खुदा' कह दे ?

08

पहले ज़ख्म, फिर मरहम, फिर तसल्ली
ये अंदाज भी काबिले तारीफ हैं उनके ?

09

मुगालतों में जिंदगी का अपना अलग मजा है लेकिन
दोज़ख के ख्याल से सिहर उठता हूँ !

( दोज़ख = नर्क, जहन्नुम )

Thursday, October 4, 2018

गरम गोश्त

01

यूँ तो ....... हर सियासत में, अपने लोग बैठे हैं
पर, हम ये कैसे भूल जाएं कि वे सियासती हैं !

02

मैं भी उसके जैसा होता, थोड़ा सच्चा-झूठा होता
थोड़ा इसका
थोड़ा उसका
सबका थोड़ा-थोड़ा होता

मंदिर होता - मस्जिद होता
गाँव भी होता
शहर भी होता
सबका थोड़ा-थोड़ा होता 

बच्चा होता
बूढ़ा होता
इधर भी होता - उधर भी होता
मैं भी उसके जैसा होता, थोड़ा सच्चा-झूठा होता !

03

पुरुष को अब बंधनों से मुक्त कर दिया गया है
साथ, स्त्री को भी

अब दोनों स्वतंत्र हैं
किसी दूसरे-तीसरे के साथ रहने के लिए, सोने के लिए
लेकिन

कितनी भयंकर होगी वो रात, वे मंजर
जब
एक ही छत के नीचे, शहर में
दो-दो .. तीन-तीन .. तूफान मचलेंगे ... ?

सोचता हूँ तो दहल उठता हूँ कि
कब तूफान ..
किसी के हुए हैं .... ??

04

औरत को आजादी चाहिए
लेकिन कितनी ?

कहीं उतनी तो नहीं, जितनी -

एक बच्चे को होती है
या उतनी जितनी एक बदचलन पुरुष को है

लेकिन एक सवाल है
औरत तो सदियों से ही आजाद है, मर्यादा में
फिर कैसी आजादी ?

हम यह कैसे भूल रहे हैं कि
पुरुष भी तो एक मर्यादा तक ही आजाद है

अगर मर्यादा से ऊपर, बाहर
कोई आजादी है, और वह उचित है, तो

मिलनी ही चाहिए
औरत भी क्यों अछूती रहे, ऐसी आजादी से ?

05

बड़े हैरां परेशां हैं सियासी लोग
इधर मंदिर - उधर मस्जिद, किधर का रुख करें ?

06

न वफ़ा, न बेवफाई
कुछ सिलसिले थे यूँ ही चलते रहे !

07

कृपया कर
गड़े मुर्दे मत उखाड़ो, सिर्फ हड्डियाँ ही मिलेंगी
वे किसी काम न आएंगी

क्या किसी को डराना है ?
यदि नहीं तो

किसी ताजे की ओर बढ़ो
स्वाद मिलेगा

गरम खून, गरम गोश्त
गरमा-गरम

सुनो, अगर ताजा न मिले तो
किसी जिंदा को उठा लो

हमें तो अपना पेट भरना है
हम काट लेंगे .... !!

08

सुनो, कहो उनसे, अदब में रहें
हम इश्क में हैं, कोई उनकी जागीर नही हैं !

09

गुमां कर खुद पे, हक है तेरा
पर जो तेरा नहीं है उस पे गुमां कैसा ?

~ उदय