01
यूँ तो ....... हर सियासत में, अपने लोग बैठे हैं
पर, हम ये कैसे भूल जाएं कि वे सियासती हैं !
02
मैं भी उसके जैसा होता, थोड़ा सच्चा-झूठा होता
थोड़ा इसका
थोड़ा उसका
सबका थोड़ा-थोड़ा होता
मंदिर होता - मस्जिद होता
गाँव भी होता
शहर भी होता
सबका थोड़ा-थोड़ा होता
बच्चा होता
बूढ़ा होता
इधर भी होता - उधर भी होता
मैं भी उसके जैसा होता, थोड़ा सच्चा-झूठा होता !
03
पुरुष को अब बंधनों से मुक्त कर दिया गया है
साथ, स्त्री को भी
अब दोनों स्वतंत्र हैं
किसी दूसरे-तीसरे के साथ रहने के लिए, सोने के लिए
लेकिन
कितनी भयंकर होगी वो रात, वे मंजर
जब
एक ही छत के नीचे, शहर में
दो-दो .. तीन-तीन .. तूफान मचलेंगे ... ?
सोचता हूँ तो दहल उठता हूँ कि
कब तूफान ..
किसी के हुए हैं .... ??
04
औरत को आजादी चाहिए
लेकिन कितनी ?
कहीं उतनी तो नहीं, जितनी -
एक बच्चे को होती है
या उतनी जितनी एक बदचलन पुरुष को है
लेकिन एक सवाल है
औरत तो सदियों से ही आजाद है, मर्यादा में
फिर कैसी आजादी ?
हम यह कैसे भूल रहे हैं कि
पुरुष भी तो एक मर्यादा तक ही आजाद है
अगर मर्यादा से ऊपर, बाहर
कोई आजादी है, और वह उचित है, तो
मिलनी ही चाहिए
औरत भी क्यों अछूती रहे, ऐसी आजादी से ?
05
बड़े हैरां परेशां हैं सियासी लोग
इधर मंदिर - उधर मस्जिद, किधर का रुख करें ?
06
न वफ़ा, न बेवफाई
कुछ सिलसिले थे यूँ ही चलते रहे !
07
कृपया कर
गड़े मुर्दे मत उखाड़ो, सिर्फ हड्डियाँ ही मिलेंगी
वे किसी काम न आएंगी
क्या किसी को डराना है ?
यदि नहीं तो
किसी ताजे की ओर बढ़ो
स्वाद मिलेगा
गरम खून, गरम गोश्त
गरमा-गरम
सुनो, अगर ताजा न मिले तो
किसी जिंदा को उठा लो
हमें तो अपना पेट भरना है
हम काट लेंगे .... !!
08
सुनो, कहो उनसे, अदब में रहें
हम इश्क में हैं, कोई उनकी जागीर नही हैं !
09
गुमां कर खुद पे, हक है तेरा
पर जो तेरा नहीं है उस पे गुमां कैसा ?
~ उदय
यूँ तो ....... हर सियासत में, अपने लोग बैठे हैं
पर, हम ये कैसे भूल जाएं कि वे सियासती हैं !
02
मैं भी उसके जैसा होता, थोड़ा सच्चा-झूठा होता
थोड़ा इसका
थोड़ा उसका
सबका थोड़ा-थोड़ा होता
मंदिर होता - मस्जिद होता
गाँव भी होता
शहर भी होता
सबका थोड़ा-थोड़ा होता
बच्चा होता
बूढ़ा होता
इधर भी होता - उधर भी होता
मैं भी उसके जैसा होता, थोड़ा सच्चा-झूठा होता !
03
पुरुष को अब बंधनों से मुक्त कर दिया गया है
साथ, स्त्री को भी
अब दोनों स्वतंत्र हैं
किसी दूसरे-तीसरे के साथ रहने के लिए, सोने के लिए
लेकिन
कितनी भयंकर होगी वो रात, वे मंजर
जब
एक ही छत के नीचे, शहर में
दो-दो .. तीन-तीन .. तूफान मचलेंगे ... ?
सोचता हूँ तो दहल उठता हूँ कि
कब तूफान ..
किसी के हुए हैं .... ??
04
औरत को आजादी चाहिए
लेकिन कितनी ?
कहीं उतनी तो नहीं, जितनी -
एक बच्चे को होती है
या उतनी जितनी एक बदचलन पुरुष को है
लेकिन एक सवाल है
औरत तो सदियों से ही आजाद है, मर्यादा में
फिर कैसी आजादी ?
हम यह कैसे भूल रहे हैं कि
पुरुष भी तो एक मर्यादा तक ही आजाद है
अगर मर्यादा से ऊपर, बाहर
कोई आजादी है, और वह उचित है, तो
मिलनी ही चाहिए
औरत भी क्यों अछूती रहे, ऐसी आजादी से ?
05
बड़े हैरां परेशां हैं सियासी लोग
इधर मंदिर - उधर मस्जिद, किधर का रुख करें ?
06
न वफ़ा, न बेवफाई
कुछ सिलसिले थे यूँ ही चलते रहे !
07
कृपया कर
गड़े मुर्दे मत उखाड़ो, सिर्फ हड्डियाँ ही मिलेंगी
वे किसी काम न आएंगी
क्या किसी को डराना है ?
यदि नहीं तो
किसी ताजे की ओर बढ़ो
स्वाद मिलेगा
गरम खून, गरम गोश्त
गरमा-गरम
सुनो, अगर ताजा न मिले तो
किसी जिंदा को उठा लो
हमें तो अपना पेट भरना है
हम काट लेंगे .... !!
08
सुनो, कहो उनसे, अदब में रहें
हम इश्क में हैं, कोई उनकी जागीर नही हैं !
09
गुमां कर खुद पे, हक है तेरा
पर जो तेरा नहीं है उस पे गुमां कैसा ?
~ उदय
2 comments:
वाह
गजब की प्रस्तुती.
समसामयिक विषय को बखूबी छुआ.
नाफ़ प्याला याद आता है क्यों? (गजल 5)
बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण और वर्तमान परिस्थितियों
पर कटाक्ष करती रचना
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