इक दिन, उन्हें भी दुःख होगा और वो बहुत पछतायेंगे
मुहब्बत को,… जुबां पे न लाकर गुनह किया है उन्ने ?
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हमें, कांव-कांव से परहेज नहीं है 'उदय'
पर कौन समझाये उन्हें कि न चलें हंस की चाल ?
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दूध का दूध औ पानी का पानी सब अलग हो जाएगा
गर हिम्मत है, जज्बा है, लड़ लो एक ही मैदान से ?
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अरे भाई, कोई तो उन्हें ख़्वाबों से बाहर निकाले
कहीं कोई हवा नहीं चल रही है उनके नाम की ?
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सरकार तो बनेगी ही, पर उनकी नहीं जो
खुद ही खुद से खुद की बनाना चाहते हैं ?
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1 comment:
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (07.03.2014) को "साधना का उत्तंग शिखर (चर्चा अंक-१५४४)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें, वहाँ आपका स्वागत है, धन्यबाद।
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