Sunday, April 28, 2013

हिन्दी साहित्य ...


उनकी गलियों में, पाँव रखने से पहले ज़रा सोच लेते 
वो हिन्दोस्तां की तरह, तुम्हारे बाप की जागीर नहीं है ?
... 
सच ! आज उन्ने, उनकी फोटो पे चैंप दी है गजब की कमेन्ट 
ऐंसा लगता है 'उदय', फेसबुकिया मेट्रो में, है वीराना छाया ?
... 
मेहमानों को, घुसपैठिया कहना जायज नहीं है 'उदय' 
क्योंकि - अब वो सरहद पे नहीं, अपने आँगन में हैं ?
... 
अब तुम 'उदय', हिन्दी औ हिन्दी साहित्य की बातें न करो 
इक ये ही तो डगर है, जहाँ जिन्दों की कहीं कोई क़द्र नहीं ?
... 
बहुत अच्छे भी नहीं हैं ख्याल तुम्हारे 'उदय' 
फिर भी कहते हो तो चलो हम मान लेते हैं ? 
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5 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

सन्नाट..

Arun sathi said...

sundar

Arun sathi said...

sundar

Unknown said...

उनकी गलियों में, पाँव रखने से पहले ज़रा सोच लेते
वो हिन्दोस्तां की तरह, तुम्हारे बाप की जागीर नहीं है ?

very right,,,

कविता रावत said...

अब तुम 'उदय', हिन्दी औ हिन्दी साहित्य की बातें न करो
इक ये ही तो डगर है, जहाँ जिन्दों की कहीं कोई क़द्र नहीं ?
..बहुत खूब!