Tuesday, February 26, 2013

छुक-छुक ...


बाज आ जाओ मियाँ,........लफ्फाजियों से 
गर इस बार टूटा दिल, तो बिखर जाओगे ? 
...
सच ! अब इसमें कुसूर उनका, तनिक भी नहीं है 'उदय' 
हम ही नादाँ थे, जो बात उनके दिल की भाँप नहीं पाए ? 
... 
"वाई-फाई" की क्या जरुरत है, और किसे जरुरत है मियाँ
कहीं ऐंसा न हो, यह सिर्फ आतंकी मंसूबों को अंजाम दे ? 
... 
ईमानदारी की, सारी किताबें कल रद्दी में बेच दी हमने 
उफ़ ! सालों-साल में भी, इक पन्ना काम नहीं आया ? 
... 
छुक-छुक ... छुक-छुक ... छुक-छुक थी 
छुक-छुक ... छुक-छुक ... छुक-छुक है ? 

3 comments:

Dinesh pareek said...

बहतरीन प्रस्तुति बहुत उम्दा

आज की मेरी नई रचना जो आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार कर रही है

ये कैसी मोहब्बत है

खुशबू

Rajendra kumar said...

बहुत ही उम्दा प्रस्तुति.

प्रवीण पाण्डेय said...

रोचक अवलोकन रेल बजट पर।