शराफतों औ वफाओं की 'उदय', अब क़द्र नहीं है वहाँ
जहाँ, झूठ औ फरेब के, हर घड़ी जलसे लगते हों ??
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लुटते तो हम ही हैं अक्सर, उनके आगोश में जाकर
पर, इल्जाम तो देखो,...वो हमको लुटेरा कह रहे हैं ?
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उन तक पहुँचने के, रास्ते बहुत आसाँ थे 'उदय'
शायद, पाँव हमारे............ही टेड़े-मेडे निकले ?
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कल, रिश्ता टूटते ही, सदियों पुराना हो गया था
आओ लग के गले, फिर से नया कर लें सनम ?
1 comment:
बेहतरीन रचना..
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