Monday, December 3, 2012

मकसद ...


उफ़ ! बड़ी अजीबो-गरीब है, .............. मुहब्बत उसकी 
कभी हंस के लिपटती है, तो कभी सहम के छिटकती है ? 
... 
मरते मरते भी... मौत न आई मुझको 
बस, तेरी एक उम्मीद ने ज़िंदा रक्खा ? 
... 
गुनह उनका, ..... काबिल-ए-माफी नहीं है दोस्त 
कलम की आड़ में, लूट मकसद हुआ था उनका ? 

6 comments:

Arun sathi said...

साधू-साधू

Arun sathi said...

साधू-साधू

ANULATA RAJ NAIR said...

bahut khoob kaha...
anu

Yashwant R. B. Mathur said...

बहुत बढ़िया सर!


सादर

prritiy----sneh said...

achhi panktiyan hain.

shubhkamnayen

विभूति" said...

खुबसूरत अभिवयक्ति.....