Wednesday, May 30, 2012

ऐ दोस्त ...


मंशा ... 
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वो, मेरी आँखों के सामने 
काला-पीला करते रहें 
और मैं, खामोश देखता रहूँ 
यही है उनकी मंशा !
काश ! खुद-ब-खुद ... मैं ... 
हो जाता ...
उनकी मंशा के अनुरूप !!
... 
धूर्त ... 
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ऐ ... हाँ ... हाँ ... तू ... 
मूर्ख ... पाखंडी ... 
तू ... 
अपने आप को बहुत बड़ा ... 
ज्ञानी ... मत समझ !
मुझे ... 
हाँ ... मुझे ... पता है !!
तू ... 
कितना बड़ा ... धूर्त है !!!
... 
जहर ... 
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ऐ दोस्त ... 
मैं जानता हूँ, तुम्हारे अन्दर 
मेरे लिए 
बहुत जहर भरा हुआ है 
जिसे तुम ... मौके-बे-मौके ... 
उगलते रहते हो !
पर, क्या मिला तुम्हें -
आज तक ? 
शायद कुछ भी नहीं !!
न तो तुम 
मुझे अपने जहर से मार पाए !
और न ही 
तुम किसी शिखर को छू पाए !!
फिर क्यों -
तुम खुद को बदल नहीं लेते ? 
कहीं ऐंसा न हो - 
किसी दिन ... उलटा ... 
ये जहर तुम्हारी जान ले ले ?? 

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

गहरी अभिव्यक्ति..