ये कैसा शहर है जहां सब अपनी अपनी मर्जी के मालिक हैं
यहाँ पड़ोसियों की मर्जी से, किसी को कोई मतलब नहीं है !
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मिटटी से बन के निकले हैं, मिट्टी ही हो जाना है
ये सोने, चांदी, हीरे, मोती, मेरे हैं किस काम के !
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सच ! कहीं ऐंसा न हो, हम संकोच में डूबे रहें
और 'रब', हमें छू कर चला जाए !
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भीड़ में, मेरी तन्हाई का मतलब कुछ भी मत निकालिए
इसमें, कौन नहीं दंगाई है, पहले ये तो हमें बताइये !
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इजहार-ए-मुहब्बत में, शर्म करें तो भला क्यूँ करें
मुहब्बत बेशर्मी है ! ये किसने कह दिया तुमसे ?
2 comments:
मिटटी से बन के निकले हैं, मिट्टी ही हो जाना है
.........जीवन का सच बताती पंक्तियाँ !
संकोच तो बड़े बड़ों को निपटा डालता है।
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