Saturday, December 3, 2011

चट्टानें ...

हमारी राजधानी में
इंसान नहीं
शासक नहीं
प्रशासक नहीं
नेता नहीं
मंत्री नहीं ...
पत्थरों के ढेर लगे हुए हैं
जो धीरे-धीरे, समय-दर-समय
चट्टान का रूप ले चुके हैं
मोटी-मोटी -
चट्टानें बन चुके हैं
विशाल पहाड़ बन चुके हैं !

इन्हें तोड़ पाना
छोटे-मोटे
कारीगरों के बस की बात नहीं
इनका फैलाव
न सिर्फ राजधानी, वरन
सारे मुल्क में है
ये चट्टानें -
चहूँ ओर बिखरी हुई हैं
इन्हें तोड़ने के इरादे
टस-मस करने की भावनाएं
इनसे टकरा कर
क्षत-विक्षत हो सकती हैं !

लेकिन, अगर, यदि
इन्हें इसी तरह
स्वछंद छोड़े रखा गया तो
ये किसी भी दिन
हमें अपने तले दवा कर
मार डालेंगी !
क्यों, क्योंकि, इनके इरादे
दिन-ब-दिन
मजबूत
कठोर
निर्दयी, होते जा रहे हैं
इन्हें सिर्फ
अपने किले, और उसकी -
मजबूती की चिंता है !

इन्हें, हम और हमारे जैसे
मजदूर
किसान
गरीब
असहाय
बेसहारा
इंसान दिखाई नहीं दे रहे हैं
और तो और
ये देखना भी नहीं चाहते हैं !
ये चट्टानें
किसी न किसी दिन, हम सब को
अपने तले दबा कर
मार डालेंगी !

हम और हमारे जैसे समस्त -
मजदूरों
किसानों
गरीबों
असहायों
बेसहारों, को मिलकर
एक कुशल कारीगर की भांति
इन्हें नए सिरे से तराशना होगा
तराशने के लिए हमें
कुशलता -
कुशल कारीगिरी
का एक नमूना पेश करना होगा
अन्यथा
इनकी चपेट में आकर
तय है -
हमारा दब के मर जाना !!

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

पाथर दुनिया, मरते मानव।