Monday, October 10, 2011

आलोचक ... और मन की पीड़ा !!

एक दिन एक युवा लेखक देश के जाने-मानें आलोचक से मिलने, समय लेकर पहुँच गया, पहुंचते ही चरण स्पर्श, प्रणाम, बगैरह कर उनके सांथ बैठ गया ! आलोचक महाशय भी बेहद प्रसन्न हुए कि - चलो कोई तो लेखक आया उनके पास सलाह-मशवरा लेने ... दोनों के चेहरों पे प्रसन्नता के हाव-भाव थे, फिर दोनों के बीच चर्चा शुरू हुई ! युवा लेखक ने भूमिका बांधते हुए कहा - बाबू जी आप सालों साल से आलोचना कर रहे हैं ऐंसा कोई कवि, लेखक नहीं होगा जिसकी आपने बाल की खाल न निकाली हो, मैंने बहुत कुछ पढ़ा है आपके बारे में, आप सचमुच एक महान आलोचक हैं !

युवा लेखक की मीठी मीठी बातें सुनकर आलोचक महोदय के चेहरे पर चमक के भाव परिलक्षित होने लगे, बातें सुनकर वे बोले - हाँ, सच कह रहे हो, अच्छे से अच्छे लेखन की बाल की खाल उधेड़ी है ! फिर युवा लेखक ने नम्रता पूर्वक आग्रह किया - बाबू जी मैं आपके पास यह जानने-समझने आया हूँ कि एक श्रेष्ठ लेखक बनने के लिए क्या क्या किया जाए अर्थात कैसा लेखन किया जाए, यह मुझे आपसे बेहतर कोई और नहीं समझा सकता, इसलिए आपके पास आया हूँ !

अच्छा ये बात है तो सुनो - अक्सर मैंने देखा है कि लेखकगण दिल के भावों के बीच में अपने मन की कल्पनाएँ भी घुसेड देते हैं, तुम ऐसा बिलकुल मत करना ... दूसरा - एक सब्जेक्ट के भीतर कभी भी दो-दो, तीन-तीन सब्जेक्ट मत घुसेड़ना ... तीसरा - समय के अनुकूल क्या पसंद किया जा रहा है उस पसंद के अनुरूप लेखन करना ... चौथा - व्यवसायिक भाव से लेखन बिलकुल मत करना ... पांचवा - जी-हुजूरी, चमचागिरी, भाई-भतीजावाद के भाव रूपी लेखन से सदैव दूर रहना ... बस ये ही कुछ छोटे-मोटे सूत्र हैं जिनका पालन कर एक श्रेठ व महान लेखक बना जा सकता है !

बाबू जी, एक बात और, आप बुरा मत मानना, आप में इतनी समझ व अनुभव है फिर आप आलोचना छोड़ के स्वयं लेखन क्यों नहीं करते ? ... ( कुछ देर मौन रहने के बाद ) यार क्या बताऊँ, एक-दो बार कोशिश की, किन्तु कुछ दमदार-झन्नाटेदार लिख नहीं पाया, सच बोलूँ तो लेखन कठिन काम है जो हर किसी के बस की बात नहीं है, और रही बात आलोचना की - उसमें रखा क्या है, कुछ भी नहीं, जिसकी चाहो - जब चाहो, उठाओ और बजा दो, पर एक बात सदैव याद रखना - आलोचनाएँ अमर नहीं होतीं, श्रेष्ठ लेखन अमर होता है, अब क्या बताऊँ - बस इतना कहूंगा, बनाना कठिन है और मिटाना सरल ... ठीक है बाबू जी ... चलता हूँ, प्रणाम !!

4 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

राह कठिन जब चुन ही ली है।

अजित गुप्ता का कोना said...

काहे आलोचकों की बजा रहे हो। आजकल तो ये ही साहित्‍यकार गिने जाते हैं।

अरुण चन्द्र रॉय said...

आलोचक के बिना लेखक भी अधूरा है ....

shyam gupta said...

बहुत सटीक कहा है ..श्रेष्ठ लेखन ही अमर होता है...
.....परन्तु आलोचक वह ईंट है जिस पर उस श्रेष्ठ लेखन की नींव रखी होती है ...और
"बन् संवर के इठलाती तो हैं इमारतें,
नींव केपत्थर की सदा किसको सुहाई है "...

--वैसे कथा असत्य है...बिना स्वयं उच्चकोटि के साहित्यकार हुए कोई आलोचना कर ही नहीं सकता ....बुराई कर सकता है ...आलोचना व बुराई में अंतर होता है ....