Saturday, June 11, 2011

... जी रहे हैं, मर रहे हैं, सिर्फ, सिर्फ, सिर्फ, लाचार !

सच ! चीज तो सचमुच, बड़े काम की है, फेसबुक
पर, किस चेहरे पे कौन-सा चेहरा है, कौन जाने !
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उफ़ ! बेवजह बिखरे फिरे हम, आशिकी, में तेरी
टुकड़ों टुकड़ों में पड़े हैं, आज हम, सारे जहां में !
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जब तलक हुश्न छलके नहीं, तो कैसे उसे हम, हुश्न कह दें
जब लबा-लब हो नहीं, तो हुश्न खुद--खुद छलके कैसे !
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दास्ताँ तेरी-मेरी, किसी तंग गली से कम कहाँ है 'उदय'
उफ़ ! तुम गुजरे तो हम ठहरे, हम गुजरे तो तुम ठहरे !
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क्या सर और क्या सरकार, चारों ओर हैं नक्सली प्रहार
उफ़ ! जी रहे हैं, मर रहे हैं, सिर्फ, सिर्फ, सिर्फ, लाचार !!

2 comments:

अरुण चन्द्र रॉय said...

बढ़िया ग़ज़ल.. समय पर सार्थक कमेन्ट करती ग़ज़ल...

प्रवीण पाण्डेय said...

यह लाचारी,
प्रजा बेचारी।