जिन्होंने खुद को बेच, शिखर पाया है 'उदय'
उनसे वफ़ा की चाह, उफ़ ! मुश्किल लगे है !
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कब तक बात होती रहे तेरी-मेरी
चलो आज हम, हमारी बातें करें !
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मान, सम्मान, पहचान, स्वाभीमान
ये सब, क्या खूब, इंसानी फितरतें हैं !
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एक अर्से से कोई हमें खामोश बनकर चाहता रहा
उफ़ ! आज मेरे इजहार पर भी, वो खामोश रहा !
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नंगे, लुच्चे, चोर, उचक्के, आंडू, पांडू, हुए संघठित
फिर कैसे संभव हो, बन पाए शरीफों की सरकार !
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मीडिया के लोग बेहद चिंतित जान पड़ रहे हैं 'उदय'
सच ! कहीं ये लंगोटी बाबा दुकानदारी न बंद करा दे !
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फिर फिर नागार्जुन, एक अविस्मर्णीय राष्ट्रीय संगोष्ठी
संस्मरण : बाबा नागार्जुन, कुछ भूल गए, कुछ याद रहे !!
3 comments:
बाबा की बेबाकी याद आती है।
ाच्छी रचना के लिये सधूवाद।
हम लोग तो अपना सबकुछ भूल चुके हैं..
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