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बसा लो तुम हमें, अपने गिरेबां में
दिलों में अब, है आलम बेवफाई का।
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वो मिले, मिलते रहे तन्हाई में
भीड में, फिर वो जरा घबरा गये।
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आज दुआएँ भी हमारी, सुन लेगा ‘खुदा’
जमीं पे, गम के साये में, खुशी हम चाहते हैं।
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तुमने हमारी दोस्ती का, क्यूं इम्तिहां लिया
तुम इम्तिहां लेते रहे, और दूरियाँ बढती रहीं।
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मिट्टी के खिलौनों की दुकां, मैं अब कहां ढूंढू
बच्चों के जहन में भी, तमंच्चे-ही-तमंच्चे हैं।
11 comments:
मिट्टी के खिलौनों की दुकां, मैं अब कहां ढूंढू
बच्चों के जहन में भी, तमंच्चे-ही-तमंच्चे हैं।
वाह जबाब नही, सभी शेर एक से बढ कर एक
मुझे शिकायत है
पराया देश
छोटी छोटी बातें
नन्हे मुन्हे
SAARE KE SAARE HI SHE'R ADHBHOOT BAHOT HI KHUB LIKHAA HAI AAPNE...SAARE KE SAARE HI SHE'R PASAND AAYE MUJHE.... BAHOT BAHOT BADHAAYEE AAPKO..
ARSH
achchey lage aap ke sabhi sher.
दिलों में अब, है आलम बेवफाई का।
ये कमबख्त दिल ....!!
वो मिले, मिलते रहे तन्हाई में
भीड में, फिर वो जरा घबरा गये।
बहुत खूब....!!
मिट्टी के खिलौनों की दुकां, मैं अब कहां ढूंढू
बच्चों के जहन में भी, तमंच्चे-ही-तमंच्चे हैं।
वाह...वाह.....लाजवाब......!!
मिट्टी के खिलौनों की दुकां, मैं अब कहां ढूंढू
बच्चों के जहन में भी, तमंच्चे-ही-तमंच्चे हैं।
ytha arth ka bada acha varnan .
kaaphi sundar sir ...ek saath kai padh kaphi achchha laga....
सभी शेर एक से बढ कर एक.....रचना बहुत अच्छी लगी....बहुत बहुत बधाई....
gazab gazab ke khyaal hai sachmuch
मिट्टी के खिलौनों की दुकां, मैं अब कहां ढूंढू
बच्चों के जहन में भी, तमंच्चे-ही-तमंच्चे हैं।
bahut hi kaduwaa satya hai!!
मिट्टी के खिलौनों की दुकां, मैं अब कहां ढूंढू
बच्चों के जहन में भी, तमंच्चे-ही-तमंच्चे हैं।
मुझे तो अपना बचपना दिख रहा है अपने ब्लॉग पर जब हम सबके चहेते हुआ करते थे, पर आपने तो आज के बच्चों की सूरत दिखाई शायद उसके लिए अपनी ही पीढी दोषी है.................
सुन्दर और भावपूर्ण शेरों का तहे दिल से स्वागत.
बधाई
चन्द्र मोहन गुप्त
तुमने हमारी दोस्ती का, क्यूं इम्तिहां लिया
तुम इम्तिहां लेते रहे, और दूरियाँ बढती रहीं।
मिट्टी के खिलौनों की दुकां, मैं अब कहां ढूंढू
बच्चों के जहन में भी, तमंच्चे-ही-तमंच्चे हैं
उदय जी ........... vaise to sab शेर sundar hain par in dono ka jawaab nahi...........lajawaab hain. saamyok aur saarthak
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