"चलो अच्छा हुआ, जो तुम मेरे दर पे नहीं आए / तुम झुकते नहीं, और मैं चौखटें ऊंची कर नही पाता !"
कहाँ से चले थे, कहाँ आ गये हमहमें न मिले वो, जो कश्में भुला गये ।
‘उदय’ से लगाई थी आरजू हमनेअब क्या करें वो भी हमारे इंतजार मे थे।
“मनुष्य स्वतंत्र नही है क्योंकि वह हर क्षण नैसर्गिक कर्तव्यों व उत्तरदायित्वों के बंधन में जकडा हुआ है।”
चाहें तो सारी दुनिया भुला सकते हैंन चाहें तो कैसे भुलाएँ हम तुम्हे।