Thursday, September 12, 2013

अक्सर ...

मेरी रूह को, न चैन मिलता, और न ही सुकून
गर, तेरा हिसाब चुकाए बिना चला गया होता ?

क्या करते, तेरे दर, गली, बस्ती में, हमें आना पडा
बार-बार बे-वफाई के इल्जाम हमसे सहे नहीं जाते ?

ऐंसा सुनते हैं 'उदय', गिरगिटों सा हुनर है उनमें
तभी तो वे अपनी असली पहचान छिपा लेते हैं ?

सच ! अब तू जिद न कर हमें आजमाने की
कई हैं, जो अब तक भूल नहीं पाए हैं हमें ?
...
देख, ज़रा संभल के गुजरना, उनके करीब से
वे आँखों से भी ……… लूट लेते हैं अक्सर ?