देर-सबेर, सब दूध-का-दूध और पानी-का-पानी हो जाएगा
लोग, खामों-खाँ ... सच्चाई से बचने की जुगत ढूंढ रहे हैं ?
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अब क्या कहें, अपने मिजाज उनसे मिलते नहीं 'उदय'
वर्ना, तकरार की ..... आज कोई गुंजाइश नहीं होती ?
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ऐंसा लगता है 'उदय', उनकी बत्ती गुल हो जायेगी
गर, बिजली की कीमतों पे अंकुश न लगाया उन्ने ?
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ये पोंगा-पंडितों का युग है 'उदय', जहां वे जन्मे हैं
वर्ना, उनकी भी ........ आज जय-जयकार होती ?
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हमें, किसी की भी, चमचागिरी औ जी-हुजूरी की जरुरत नहीं है 'उदय'
क्यों ? .................. क्योंकि, हमें बनावटी तमगों की चाह नहीं है ??
1 comment:
संवेंदंशील रचना. कविता बहुत पसंद आई.
अपने प्रिय विषयों पर में चर्चा करिए - हिंदी में !
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