Friday, September 7, 2012

महफ़िल ...

न जाने क्यूँ उनसे, अपने मिजाज मिलते नहीं 'उदय' 
ख्यालों में पुल बने, और बनते ही ढह गए ? 
... 
काश ! गुटबाजी का हुनर, हमने भी सीख लिया होता 
भरी महफ़िल में 'उदय', हम ..... यूँ तन्हा नहीं होते ? 
... 
अब ये जंग अस्तित्व के लिए लड़ी जा रही है 'उदय' 
दोनों को, ....... हार-जीत से कोई दरकार नहीं है ? 
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बात ही बात पे बिफर पड़ते हो 
मुहब्बत करते हो, या हुकूमत ? 
... 
पांव पकड़-पकड़ के उन्ने, अपनी महफ़िल सजाई है 
और, अब वो हमसे कहते हैं, तुम यूँ ही चले आओ ? 

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

महफिल में सब, बस दर्शक नहीं।