न जाने क्यूँ उनसे, अपने मिजाज मिलते नहीं 'उदय'
ख्यालों में पुल बने, और बनते ही ढह गए ?
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काश ! गुटबाजी का हुनर, हमने भी सीख लिया होता
भरी महफ़िल में 'उदय', हम ..... यूँ तन्हा नहीं होते ?
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अब ये जंग अस्तित्व के लिए लड़ी जा रही है 'उदय'
दोनों को, ....... हार-जीत से कोई दरकार नहीं है ?
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बात ही बात पे बिफर पड़ते हो
मुहब्बत करते हो, या हुकूमत ?
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पांव पकड़-पकड़ के उन्ने, अपनी महफ़िल सजाई है
और, अब वो हमसे कहते हैं, तुम यूँ ही चले आओ ?
1 comment:
महफिल में सब, बस दर्शक नहीं।
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