प्रहार ...
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हाँ ... बहुत दूर हूँ मैं
तेरे शहर से
पर ... तेरी धड़कनों से दूर नहीं हूँ
और, हो भी नहीं सकता !
क्यों ? ... क्योंकि -
मैं ... रोज प्रहार करता हूँ
शब्दों से
तेरी धड़कनों पर !
वे रोज कंप-कंपाती हैं
मेरे प्रहार से
बोल ... सच कहा न !
मैं दूर होकर भी ... दूर नहीं हूँ !!
....
जागीर ...
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ऐ दोस्त ... तू जिसे
अपनी जागीर समझ के
मुझसे छिपा रहा है
वो
मेरे लिए
सड़क पर पडा
महज एक पत्थर है !
भले चाहे ... वो हीरा हो, तेरे लिए !!
तू कहे तो
जिस दिन चाहूँ ... उस दिन
उसे
एक ठोकर मार कर
इस ओर से ... उस ओर पहुंचा दूं !!!
...
मुहब्बत ...
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हाँ ...
हाँ ...
हाँ ...
हाँ ...
हाँ ...
और कितने बार कहूँ ... हाँ ...
कहा न ...
हाँ ... मुझे तुमसे मुहब्बत है !!
1 comment:
बहुत सुंदर कविता ...बधाई
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