एक दिन, मैंने गुस्से-गुस्से में
सादा कागज़ पर
गोदा-गादी
अंड-संड
अगड़म-बगड़म
लाल-पीला, हरा-नीला
जैसा, कुछ गड्ड-मड्ड कर दिया !
अब कर दिया तो कर दिया !!
फिर, अचानक
एक दिन, एक साहब की नजर
गड्ड-मड्ड पर पडी !
पडी क्या, उन्होंने पीठ थप-थपाई !
और कहा -
क्या पैनी, धारदार कविता है !
फिर क्या था, बस उसी दिन से
अपुन ... कवि बन गया हूँ !!
9 comments:
रंगीनियत में धार है..
gadd madd se hi banti kavitaa man ke bhaaw gaad maad me hi hote hai...
waah........
यह तो हो गयी कविता में (की) ऐसी-तैसी
yahi sahi he....jay ho
aapki yeh gadd madd kavita chal nikli.
बहुत बेहतरीन और प्रशंसनीय.......
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
बहुत खूब...
यह कविता तो काफी मनोरंजक भी है. जय हो गड्ड मड्ड कविता की.
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