सच ! जो दुम दबा कर भागने, के बड़े फनकार थे
लो, आज उन्हें बहादुरी का मिल रहा पुरूस्कार है !
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क्या पडी थी झांकने की, खुद के भीतर आप ही
बेवजह, जख्मों को हवा-पानी मिल गया !
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सच ! ये डगर, मेरी बस्ती को जाती नहीं है 'उदय'
न जाने क्यूँ, फिर पग मेरे, इस डगर पे बढ़ रहे हैं !
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काश ! वे जुबां की तरह, नजरें भी थाम लेते
ख़ामो-खां हमें आज उनका इंतज़ार न होता !
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गप्प-गप्प सूतने से परहेज है किसे
जिधर देखो उधर, टपकती लार है !
4 comments:
बहुत बढिया रचना है।
हा हा, सन्नाट
बेहतरीन प्रस्तुति ।
सुंदर प्रस्तुति ....समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका सवागत है http://mhare-anubhav.blogspot.com/
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