एक दिन -
मैंने अपने आप को
साहित्यिक बाजार में खड़े पाया !
वहां बहुत सी साहित्यिक दुकानें सजी थीं
कहीं गोष्ठी
कहीं संगोष्ठी
कहीं संस्कार
कहीं पुरुष्कार
कहीं शोक
कहीं स्मृति
कहीं संस्कृति
कहीं जन्म -
तो कहीं पुण्य तिथी
बड़े धूम-धाम से मन रही थी !
सब जगह
दूर से, पास से, नजर दौड़ाई
सभी जगह लम्बी-लम्बी कतारें थीं
हर एक
किसी न किसी के -
आगे, पीछे, दायें, बाएं, खडा था
और खड़े-खड़े ही -
हाँ में हाँ
अपनी मुंडी हिला रहा था !
यह सब देख कर
मैं सहम गया
सच कहूं तो चिंता में डूब गया
कि -
सिर्फ हाँ में हाँ थी
कहीं ना, ना, ना, नहीं थी
तब से, अब तक
सोच रहा हूँ, किस दुकान में जाऊं !!
या फिर
किसी 'शो-रूम' -
या 'शापिंग-माल' का इंतज़ार करूँ !!!
1 comment:
--कहां फ़ंस गये भैये.... हर शाख पै ....
वैसे...
-- पुरुष्कार = पुरस्कार
-- तिथी = तिथि ...
--बस समझ लो एसे ही हैं ये सब ...पुरस्कार लेने-देने वाले....
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