Saturday, September 24, 2011

दास्ताँ-ए-मोहब्बत ...

मरने को तो मर गए हैं लेकिन
फिर भी हम जिए जा रहे हैं !

बुझ तो गई हैं लकडियाँ सारी लेकिन
अंगार अब भी दहके जा रहे हैं !

जर्रा जर्रा जिस्म का जल गया है लेकिन
रूह वहीं पे खड़ी मुस्काये जा रही है !

भुलाना चाहा है तुमने हमको लेकिन
फिर भी हम याद आ रहे हैं !

ये कैसी मुहब्बत की थी तुमने हमसे
जो मर कर भी हम तुम्हें याद आ रहे हैं !

जर्रा जर्रा तुमने है भुलाना चाहा लेकिन
जर्रा जर्रा हम याद आ रहे हैं !!

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

विरोधाभासों से भरी जिन्दगी।

दीपक बाबा said...

मोहबत शे है ऐसी, न भूलने दे और पास आये.