Sunday, July 3, 2011

सर्द रातें !

सर्द रातें थीं
सिमटे सिमटे से
हम बैठे रहे
उंकडू !

बांहों में बांहे, डाल कर
सिमटे रहे,
खुद ही से
करते भी क्या !
धुंध बिखरा था
शीत भी, गिरने लगी थी !

सिमटे रहे, सिमटते रहे
जाने
और कितना
सिमटना था, हमको, हम ही से
कडकडाती ठंड में
बैठे बैठे,
उंकडू
इंतज़ार में, तुम्हारे ... !!

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

सम्बन्धों की शीत घिरती है तो अस्तित्व सिमट जाते हैं।