Sunday, July 3, 2011

... कड़वी ज़ुबानी !

क्या करें
चुप-चाप बैठे हैं
डरते हैं
कहीं, उगलने लगें
जहर, मुंह से !
आदत, कुछ बुरी है
पर, लोगों को
लगती, ज्यादा बुरी है
घर में, दोस्तों में
अक्सर चर्चे छिड़े हैं
छिड़ते रहे हैं
क्यूं ये छोड़ता नहीं
अपनी आदत पुरानी !
समय के सांथ
चलना भी ...
क्यूं है, इसको गवारा
जाने क्या मिला
या मिल जाएगा इसको
इस मीठे जमाने में
बोल कर, कड़वी ज़ुबानी !!

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

सच सच है, कड़वा है तो है, कभी न कभी तो बोला ही जायेगा।