हुश्न की चौखटों पे, किसी की जातें नहीं होतीं
यह वो दरिया है, जहां हर कोई डूब जाता है !!
जिस चौखट पे, तुम पहुंचते हो छिपते-छिपाते
वहीं पे, सिर, मस्तक, आँखें, फिर क्यूं झुकाते हो !
जिसे कोसे फिरे तुम, दिनों - दिन महफिलों में
हुई रात, वहीं तुम, फिर आशियाना क्यूं बनाते हो !
जिसे तुम मान बैठे हो, है वो कोढ़ की दुनिया
उसी को मरहम समझ, जख्मों पे, फिर क्यूं लगाते हो !
जब तुम बाहर चले - निकले, तब पैर डग-मगाते हैं
पैर जब सांथ देते हैं, तब उसी चौखट पे, फिर क्यूं पहुँच जाते हो !
नहीं कोई जहां में, जो मैकदे जी जात पूंछ ले
है, वही बोतल, वही साकी, जिसे सब चूम लेते हैं !!
6 comments:
सुन्दर लेखन, गहरे भाव. बधाई ............. !
अच्छा लगा।
बहुत अच्छी लगी आप की यह रचना, धन्यवाद
वही बोतल, वही साकी, जिसे सब चूम लेते हैं !!
बढिया प्रस्तुति. आभार सहित...
एक कडुआ सच और गंभीरता से भरी यह रचना
दिल को छु लेने वाली है , बहुत खूब
आह भरी रचना
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