Tuesday, March 8, 2011

उफ़ ! उसकी क्या शर्म, और क्या बेशर्मी !!

जो टूट के बिखर जाएं, उन्हें सपने क्या कहें
सपनों को संभाल के, सहेजा-संवारा जाए !
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'पुष्प' खिलता है 'गुलाब' का, बिखर जाता है
महक संग ताजगी, दीवानगी दिए जाता है !
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सच ! सूरज की तपन सा, है अगन उसका
पर भाव-व्यवहार में है जल सी शीतलता !
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उफ़ ! कोई छोटे पापों का हवाला देकर
बड़े
पापियों को बचाने की फिराक में है !
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बच्चे रोटी के लिए भभ्भड़ मचा रहे हैं
सच ! वे दो घड़ी भूखा रह नहीं सकते !

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न्यूज चैनल वाले सत्ता के नशे में चूर, मद-मस्त हुए हैं
सच ! इनके कान पकड़, मरोड़कर होश में लाया जाए !
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सच ! एक दिन होंगे शिखर पर, अपने भी दिन आयेंगे
दिन-रात की मेहनत, लगन, जज्बे, परचम बन लहरायेंगे !!
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लोग बेवजह ही तबज्जो दे रहे हैं
सच ! कहीं, कुछ भी तो नहीं है !
...
कौन कहता है, अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता
'विकिलीक्स' ने फोड़ा और दुनिया को दिखा दिया !
...
कोई शर्म को बेच-बेच के जागीरदार बना है
उफ़ ! उसकी क्या शर्म, और क्या बेशर्मी !!

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

सबकुछ तो पहले ही खो चुका है वह।