Saturday, February 26, 2011

... कौन समझे मखमलों पे, नींद क्यूं आती नहीं !!

आज का दौर हो, या कल की बातें हम करें
सच ! साहित्य के कद्रदान कम ही मिलते हैं !
...
किसी ऊंची इमारत सा, खडा है पास में वो
मगर अफसोस, सारे झरौंखे बंद रक्खे है !
...
हमारा तो खुद पर से यकीं उठ चला है
उफ़ ! अब करें तो, गैरों पे यकीं कैसे करें !
...
तुम कहो तो हम यूं ही फना हो जाएं
पर दोस्ती में, शर्तें परोसी जाएं !
...
कोई बहुत खुश हुआ होगा, सता कर मुझे
गया ही था, तो फिर वापस आया क्यों है !
...
फूल खिले और महक उठे, तितली, भंवरे चहक उठे
तन-मन में यौवन जब आया, अंग अंग थिरक उठे !
...
कविता अमृत है, उसकी नहीं हुई, कहीं गुम है, रंग अलग हैं
वक्त, सुख मार देता, मुंदा रहता, बन गई एक छोटी कहानी !
...
जिस्म के बाजार में मोल-भाव का कोई रंटा-टंटा नहीं होता
कोई ईमानदार खरीददार, और बेईमान बिकवाल होता !
...
जिस्म की आग से बढ़कर, कोई आग नहीं देखी हमने
सच ! जो जलाती भी है, और खुद भी जल जाती है कभी !
...
धूल, मिट्टी, कंकडों से, मेरा वास्ता हरदम रहा
कौन समझे मखमलों पे, नींद क्यूं आती नहीं !!

4 comments:

Arun sathi said...

कितनी सारी बातें एक ही बार मे कह दी। सार्थक रचना की एक एक शेर प्रेरक है। कहीं दोस्ती में शर्त, कहीं जिस्म की अग। और मखमलों पे नींद आती नहंी। बहुत खुब।

प्रवीण पाण्डेय said...

जमीनी तथ्यों की सच्चाई।

आपका अख्तर खान अकेला said...

shi kha jnaab ne behtrin prstuti. akhtar khan akela kota rasjthan

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

किसी ऊंची इमारत सा, खडा है पास में वो
मगर अफसोस, सारे झरौंखे बंद रक्खे है !
क्या बात है....
सच्ची सच्ची कहती पोस्ट... बधाई... उदय भाई...