तुम्हारे माथे पे, काला-लाल निशां
न जाने क्या, देखता रहा, कुछ अजीब सा
छोटा सा निशां, बहुत प्यारा, अनोखा
कुछ कचडा उड़ के चिपक गया हो जैसे
या तुमने लगा के कुछ रखा हो
पर मुझे, कुछ कुदरती सा लगा
था तो, लाल-काला सा ही, पर
ऐसा लगा, उसने तुम्हारी खुबसूरती में
चार चाँद लगा दिए हों !
मैं देखता रहा, निहारता रहा, कुछ देर
बहुत देर, सफ़र जो लंबा था
हिम्मत न हुई, कुछ कहने, पूछने की
तुमसे कभी बात, जो न हुई थी
बस ट्रेन के सफ़र में ही
तुम दिखतीं, मैं तुम्हें देखता हूँ
किन्तु, पहले कभी, मेरी नजर
तुम्हारे माथे पर, टिकी नहीं थी !
शायद इसलिए, आज पहली बार, तुम
मेरे इतने करीब थीं, बैठे थे हम
आमने सामने, सीट पर
संयोग था, खुशनसीबी भी मेरी
करीब से तुम्हें देखने का मौक़ा मिला
देखते देखते, स्टेशन पर ट्रेन रुकी
तुम उतरीं, चलीं गईं, मैं देखता रहा
क्या था, माथे पर निशां, सोचता रहा
न जाने कब, मौक़ा मिले, पूछने का
मिलने का, बात करने का, तुमसे !
निशां जो भी था, जैसे भी था
तुम्हें खूबसूरत बनाया था उसने, सच
आज, मैं बहुत खुश हूँ, पास से देखा तुम्हें
तुम, मेरी डायरी के पन्ने में
ओह, डायरी में कुछ पन्ने ही खाली बचे हैं
काश, तुमसे मेरी बात, जल्द बन जाए
सिर्फ बात नहीं, मुलाकातें भी हों
और तुम्हें मुझसे प्यार भी हो जाए
क्यूं, क्योंकि, मुझे तो प्यार है ही तुमसे !!
7 comments:
सुन्दर कविता !
अवलोकनजनित प्रेम।
गज़ब ...बहुत अच्छी पंक्तियाँ..... सुंदर
बहुत खुब सुरत कविता जी धन्यवाद
भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति.
Uday ji .. khoobsoorat kavbita hai ..
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