Monday, January 31, 2011

सच ! ब्लॉगर साथियों से, मेरा रिश्ता दिलों का है !!

दिल्ली में लोकतंत्र कहीं नजर नहीं आता 'उदय'
उफ़ ! चहूँ ओर घोटालेबाजों की दुकानें सजी हैं !
...
गांधी ! ताउम्र लड़ते रहे, जीत गए, आजाद हुए
उफ़ ! कोई नाराज था, उससे हम हार गए !
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गर्म सांसें सिहरती रहीं तूफां बनके
उफ़ ! बेचैनी थी, थोड़ी इधर, थोड़ी उधर !
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बहुत देख ली दुनियादारी 'उदय'
क्यूं खुद को आजमाया जाए !
...
किसी ने खोल ली है, तजुर्बे की दुकां
उफ़ ! क्या माजरा है, भीड़ ही भीड़ है !
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टूट कर बिखर गए पन्नों पे, जज्बात मेरे
उफ़ ! कोई बेबस है, उसे पढ़ना नहीं आता !
...
शहर में भीड़ हुई, फूलों की दुकां की 'उदय'
सच ! खुशी-गम, हर पहर नजर आते हैं !
...
किसे बेईमान, किसे सरीफ समझें 'उदय'
लोग समझदार हुए, नफ़ा-नुक्शान में अटके हैं !
...
महफिलें हों या तन्हा आलम हो 'उदय'
कोई चाहता है हमें, दूर होकर भी खुशी देता है !
...
राह तन्हा थी, एक हादसा गुजर गया
जाने कौन था, जो मुझे छू कर चला गया !
...
बंद दीवारों से, कोई मुझे पुकारता रहा
उफ़ ! हसरतें किसी की, अभी तक ज़िंदा हैं !
...
तेज बारिश हो, नदियाँ डबडबा जाएं
एक अर्सा हुआ, ठीक से तैरा नहीं हूँ !
...
चलो लम्हे लम्हे को जिन्दगी कर लें
सच ! मिल बांट कर बसर कर लें !
...
बेचैन था, मैं इधर उधर कुछ ढूंढता फिरा
सच ! कोई जहन में, टटोल रहा था मुझे !
...
अफसोस, थोड़ा उलझनों में, उलझा हुआ हूँ मैं 'उदय'
सच ! ब्लॉगर साथियों से, मेरा रिश्ता दिलों का है !!

8 comments:

मनोज कुमार said...

@ सच ! ब्लॉगर साथियों से, मेरा रिश्ता दिलों का है !!
यह तो कड़वा नहीं, मीठा है, सच है ना!
... और आपने क्या सोच रखा रखा है - हमने क्या दिमाग से ताल्लुक़ात बनाए हैं!

Arvind Jangid said...

उम्दा रचना, आभार.

कडुवासच said...

@ मनोज कुमार
... aap anyathaa na len ... baat darasal yah hai ki bahut dinon se main aap sabhee ke blogs par "tippaneenumaa" upasthiti darj naheen karaa paa rahaa hoon, shaayad isliye hi ye vichaar man men umad pade hain !!

प्रवीण पाण्डेय said...

खी विषयों पर बेबाक राय, बहुत अच्छा लगा।

केवल राम said...

महफिलें हों या तन्हा आलम हो 'उदय'
कोई चाहता है हमें, दूर होकर भी खुशी देता है !

कडवा नहीं ...मीठा है
अच्छा न सही ...लेकिन सच्चा है ...

Sushil Bakliwal said...

मीठा भी है और सच्चा भी है.

Deepak Saini said...

महफिलें हों या तन्हा आलम हो 'उदय'
कोई चाहता है हमें, दूर होकर भी खुशी देता है !

बहुत अच्छा
बधाई

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

बहुत देख ली दुनियादारी उदय
क्यों न खुद को आजमाया जाये
बहुत सार्थक एवं यथार्थ की रचना