Friday, January 7, 2011

रिश्ते, मित्र, चाहत, और जज्बात, सब झुलस जाते हैं !

कभी अन्दर, कभी बाहर, मैं खुद को ढूँढता हूँ
जाने किस घड़ी खोया, अब मैं सोचता हूँ !
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गलत फहमियों की आग को भभकने मत देना 'उदय'
रिश्ते, मित्र, चाहत, और जज्बात, सब झुलस जाते हैं !
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जख्मों की नुमाईश, उफ़ ! छिपाकर रखना यारो
क्या अपने, क्या पराये, कुरेदने में सभी माहिर हैं !
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सर्दी, बारिश, गर्मी, भूख, गरीबी, सभी बेरहम हो रहे हैं 'उदय'
जानवर हो या इंसान, नेस्त-नाबुत मकसद हो गया है उनका !
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जब खामोशियों में, कुछ हासिल हुआ 'उदय'
चलो कुछ बोल देते हैं, गर रूठ गई, तब देखेंगे !
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10 comments:

मनोज कुमार said...

हां, जब ख़ामोशियों से कुछ न बने तो बोल ही देना चाहिए। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
फ़ुरसत में आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री के साथ

प्रवीण पाण्डेय said...

गलतफहमियाँ तो सब जला देती हैं।

Arvind Jangid said...

अत्यंत ही सुन्दर प्रस्तुति......आभार

संजय भास्‍कर said...

ग़ज़ब की प्रस्तुति.... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है

amit kumar srivastava said...

कुरेदते रहते हैं वो घाव परत दर परत,
और कहते हैं घाव अभी हरे हैं,
हरियाली देखने का उनका अंदाज़ नया है ।

Deepak Saini said...

गलत फहमियों की आग को भभकने मत देना 'उदय'
रिश्ते, मित्र, चाहत, और जज्बात, सब झुलस जाते हैं !


सुन्दर प्रस्तुति

M VERMA said...

जब खामोशियों में, कुछ हासिल न हुआ 'उदय'
चलो कुछ बोल देते हैं, गर रूठ गई, तब देखेंगे !
अब बोल ही दीजिये रूठने पर देखा जायेगा

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर लिखा जी धन्यवाद

समयचक्र said...

सुन्दर प्रस्तुति...

देवेन्द्र पाण्डेय said...

उम्दा भाव।
गज़ल के मीटर में लिखते तो ज्यादा प्रभावी होता।