ईमान की बस्ती में, बेईमानों का पहरा है
कोई बाहर निकले, तो भला कैसे निकले !
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कौन जाने कब तलक, बैठना है हमको
न तुम मुद्दे पे आते हो, न खामोश होते हो !
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तेरी खामोशी का क्या मतलब समझें
जब भी देखा है, खामोश ही देखा है !
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जाने दो कोई बात नहीं, कोई अफसोस नहीं
लोकतंत्र भी क्या करे, बेईमानों का राज है !
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सुबह से शाम तक, भ्रष्टाचार के चर्चे
फिर भी मौज है, खूब कर रहे हैं खर्चे !
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अब जिन्दगी में, न कुछ आम, न ख़ास रहा
नेताओं ने लोकतंत्र को, सरेआम कर दिया !
16 comments:
ईमान की बस्ती में, बेईमानों का पहरा है
कोई बाहर निकले, तो भला कैसे निकले !
बात तो सच है ...आज के दौर को लोकतंत्र की अपेक्षा कुछ और कहना ज्यादा बेहतर लगता है ...आपकी इस रचना में बहुत सशक्त तरीके से लोकतंत्र की हालत पर प्रकाश डाला गया है ...आपका शुक्रिया इस रचना के लिए
सही मायनों में अब जीवन भी "जीवन" रहा नहीं....सुन्दर शेर !
सुबह से शाम तक, भ्रष्टाचार के चर्चे
फिर भी मौज है, खूब कर रहे हैं खर्चे !
सुन्दर रचना ... आज के हालात तो यही हैं
वाह!वाह! बेहतरीन रचना है।
वर्तमान हालातों पर।
सारे शेर पोल खोल रहे है
बेहतरीन प्रस्तुति
नेता जो भी कर दें कम है..
पोलखोल का शायराना अन्दाज. बढिया है...
चुटीला व्यंग ।
बेह्तरीन व्यंग्य्।
लोकतन्त्र की व्यथा कथा।
बढ़िया,बढ़िया,बढ़िया.
सही बिलकुल मुन्नीबाई स्टाइल में राजनीति को इन लोगों ने सरेआम कर दिया है ....हा हा हा
loktantra ko bhrashttantra bana kar rakh diya in netaon aur naukarshahon ne!
par kalam to aag uglegi hi!
कौन जाने कब तलक, बैठना है हमको
न तुम मुद्दे पे आते हो, न खामोश होते हो ..
क्या बात कही है उदय जी ... सच है ऐसे में निकलना मुश्किल है ...
आपको वाया साल बहुत बहुत मुबारक ...
वर्तमान हालातों पर बेहतरीन रचना है।
सुन्दर! सटीक!! बेहतरीन !!!
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