Monday, April 26, 2010

"मुफ़्त की नसीहतें"

तीन दोस्त बहुत दिनों बाद मिले ... मिलकर खुश हुये ... जिंदगी के सफ़र पर चर्चा शुरु ... क्या कर रहा है ... क्या हालचाल है ... सफ़र कुछ ऎसा था कि दो अमीर हो गये थे धन-दौलत बना ली थी तथा एक अपनी सामान्य जीवन शैली में ही गुजर-बसर कर रहा था ... उसकी भी बजह थी वह कहीं किसी के सामने झुका नहीं ... नतीजा भी वही हुआ जो अक्सर होते आया है, जो झुकते नहीं अपने ईमान पर अडिग होते हैं, जी-हजूरी व दण्डवत होने की परंपरा से दूर रहते हैं उन्हें कहीं-न-कहीं जिंदगी की "दौलती दुनिया" में पिछडना ही पडता है ...

... खैर ये कोई सुनने-सुनाने वाली बातें नहीं है लगभग सब जानते हैं .... हुआ ये कि दोनो सफ़ल दोस्त मिलकर तीसरे पर पिल पडे .... देख यार ये ईमानदारी व सत्यवादी परंपरा किताबों में ही अच्छी लगती है .... थोडा झुक कर, चापलूसी कर, समय-बेसमय पैर छूने में बुराई ही क्या है ... अपन जिनके पैर छूते हैं वे किन्हीं दूसरों के पैर छू-छू कर चल रहे होते हैं ये परंपरा सदियों से चली आ रही है ... चल छोड, ये बता नुक्सान किसका हो रहा है ... तेरा न, उनका क्या बिगड रहा है ... वो कहावत है "तरबूजा चाकू पर गिरे या चाकू तरबूजे पर गिर जाये कटना तो तरबूजे को ही पडता है" ...

... देख यार अपने बीवी-बच्चों के लिये, शान-सौकत के लिये थोडा झुकने में बुराई ही क्या है ... देख आज हमने पचास-पचास लाख का बंगला बना लिया, दो-दो एयरकंडिशन गाडियां हैं बच्चों के भविष्य के लिये पच्चीस-पच्चीस लाख बैंक में जमा कर दिये ...और तू ... आज भी वहीं का वहीं है ... खैर छोडो बहुत दिनों बाद मिले हैं कुछ "इन्जाय" कर लेते हैं....

... सुनो यार बात जब निकल ही गई है तो मेरी भी सुन लो जिस काम को तुम लोग परंपरा कह रहे हो अर्थात किसी के भी पैर छू लेना, जी-हजूरी में उनके कुत्ते को नहाने बैठ जाना, चाय खत्म होने पर हाथ बढाकर कप ले लेना, और तो और जूते ऊठाकर दे देना बगैरह बगैरह .... आजकल लोग बने रहने के लिये किन किन मर्यादाओं को पार कर रहे हैं ये बताने की जरुरत नहीं समझता, तुम लोग भली-भांति जानते हो और कर भी रहे हो .... रही बात मेरी ... तो मैं अपनी जगह खुश हूं ... जानता हूं चाहकर भी मैं खुद को नहीं बदल सकता .... ये "मुफ़्त की नसीहतें" जरा संभाल के रखो अपने किसी चेले-चपाटे को दोगे तो कुछ पुण्य भी कमा लोगे !

16 comments:

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

जानता हूं चाहकर भी मैं खुद को नहीं बदल सकता .... ये "मुफ़्त की नसीहतें" जरा संभाल के रखो

स्वाभिमानी व्यक्ति नहीं बदल पाता, लेकिन दुनिया उसके स्वाभिमान का सम्मान करने के बजाए मुर्ख समझती है। आत्मसम्मान को गिरवी रखके किया गया कार्य दुखदायी ही होता है।

बहुत ही प्रेरणादायी पोस्ट-आभार

Udan Tashtari said...

मुफ़्त की नसीहतें


-क्या करें!!


पोस्ट काम की है!! बुक मार्क करके रख ली.

दिलीप said...

sahi kaha agar sachche ho to jhukne ki kya zarurat...

Sadhana Vaid said...

जो लोग दुनियावी धन दौलत और विलासिता से निर्लिप्त होते हैं ऐसी 'मुफ्त की नसीहतें' वास्तव में उनके किसी काम की नहीं ! वे जिस 'खुद्दारी' की दौलत से लबरेज होते हैं उसे और कोई ना तो देख ही पाता है ना ही सराह पाता है ! बहुत बढ़िया पोस्ट !
http://sudhinama.blogspot.com
http://sadhanavaid.blogspot.com

Anonymous said...

मुफ़्त की नसीहतें

माशाअल्लाह!

नरेश सोनी said...

अच्छी-अच्छी बातें कम ही पढ़ने को मिलती है।
सुंदर पोस्ट।

Dev said...

बहुत बढ़िया पोस्ट ......

kshama said...

तो मैं अपनी जगह खुश हूं ... जानता हूं चाहकर भी मैं खुद को नहीं बदल सकता .... ये "मुफ़्त की नसीहतें" जरा संभाल के रखो अपने किसी चेले-चपाटे को दोगे तो कुछ पुण्य भी कमा लो..
Bada sahi jawab!Marathi bhasha me ek kahavat hai,jiska anuvaad kuchh aisa hoga:" Bheek na de,par apna kutta to sambhal!"Nasihat chod kuchh aur baat karo..

मनोज कुमार said...

यदि आप हमेशा ऊँची दृष्टि रखते हैं तो आपका मस्‍तक स्‍वत: ऊँचा रहेगा।

कविता रावत said...

मुफ्त में नसीहत देने वालों की कोई कमी नहीं...
उम्दा प्रस्तुति.....
हार्दिक शुभकामनाएं

Vinay said...

वाह जी यह भी ख़ूब कही
---
गुलाबी कोंपलें

vandana gupta said...

achchi nasihat hai.

राज भाटिय़ा said...

ऎसे लोग आज भी दुनिया मै कम नही, जिन्हे अन्य लोग सिर फ़िरा कहते है, बहुत सुंदर धन्यवाद

kunwarji's said...

"मुफ़्त की नसीहतें" जरा संभाल के रखो अपने किसी चेले-चपाटे को दोगे तो कुछ पुण्य भी कमा लोगे"

कितनी जबरदस्त बात इतनी सरलता से कह दी आपने!बहुत बढ़िया लगा जी आपका ये अंदाज़!

कुंवर जी,

hem pandey said...

कुछ लोग हैं जो अपने जमीर को बेच नहीं पाते.

डॉ टी एस दराल said...

सही बात।
लेकिन आजकल ऐसे लोग मिलते ही कहाँ हैं।