Sunday, October 26, 2014

लजीज ...

कुछ इस कदर, कुछ इस तरह का, गुमाँ है उन्हें 'उदय'
शाम, शमा, दीप, रौशनी, सब खुद को समझते हैं वो ?
सच ! तेरे इल्जामों से, हमें कोई परहेज नहीं है
हम जानते हैं, तू आज भी मौक़ा न चूकेगी ??
न ठीक से वफ़ा - न ठीक से बेवफाई
उनकी इस अदा पर भी मर मिटने को जी करता है ?
… 
अब तुम, मजबूरियों को, वफ़ा का नाम न दो 
सच क्या है, ये तुम जानते हो, हम जानते हैं ? 
… 
सिर्फ एक तुझसे अब तक मिजाज नहीं मिल पाये हैं अपने 
वर्ना किसी से भी तू पूंछ कर देख कितने लजीज हैं हम ??

1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (28-10-2014) को "माँ का आँचल प्यार भरा" (चर्चा मंच-1780) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
छठ पूजा की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'