Wednesday, October 2, 2013

'राईट टू रिजेक्ट' से राजनैतिक फिजाओं में गर्मी ?

'राईट टू रिजेक्ट' से राजनैतिक फिजाओं में गर्मी !

विगत दिनों देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट ने 'राईट टू रिजेक्ट' को मतदाताओं का अधिकार मानते हुए मतदाताओं के पक्ष में फैसला सुनाया, सुप्रीम कोर्ट के आदेश को सुनते ही देश में खुशी की लहर दौड़ गई। चारों ओर, फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, वेबसाईट, प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया पर जनता की खुशी व उत्साह साफ़ साफ़ नजर आये। हालांकि राजनैतिक गलियारों से इस फैसले के समर्थन या विरोध में कोई ठोस प्रतिक्रिया सुनने को नहीं मिली परन्तु कहीं कहीं से हल्की जुबान से इस फैसले के पक्ष में समर्थन जरुर नजर आया। इसमें दोराय नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला अपने आप में एक एतिहासिक फैसला है जिसकी जितनी भी सराहना की जाए कम ही होगी। मुझे आशा ही नहीं वरन पूर्ण विश्वास है कि यह कदम राजनैतिक व्यवस्था सुधार में भले छोटी ही सही पर निर्णायक भूमिका अदा करेगा, इसके प्रभाव से सतत राजनैतिक फिजाओं में गर्मी रहेगी !

'राईट टू रिजेक्ट' फैसले के आने के बाद देश की राजनैतिक सोच में, राजनैतिक विचारधाराओं में व राजनैतिक व्यवस्थाओं में क्या-क्या बदलाव आयेंगे यह कह पाना अभी जल्दबाजी होगी, उक्त फैसले के आने के पश्चात राजनैतिक समीकरणों में आने वाले बदलावों के मद्देनजर गहन चर्चा व परिचर्चा की आवश्यकता है। लेकिन, व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि इस फैसले के आने से, इस फैसले के प्रभाव से, एका-एक कहीं कोई राजनैतिक क्रान्ति नहीं आने वाली है, इस फैसले के प्रभाव से सिर्फ इतना ही होगा कि राजनैतिक दलों की तानाशाहियों व तानाशाही प्रवृत्ति के प्रत्याशियों पर जरुर अंकुश लगेगा। राजनैतिक तानाशाहियों व मनमानियों पर अंकुश लगना भी एक तरह से स्वच्छ व स्वस्थ्य राजनीति की शुरुवात मानी जायेगी जिसे क्रान्ति की संज्ञा देने में किसी को कोई हर्ज नहीं होगा। 

राजनैतिक बदलाव के शुरुवाती क्रम में, सर्वप्रथम यदि किसी पर गाज गिरेगी तो वो होंगे चुने हुए ऐसे प्रत्याशी जो चुनाव जीतने के बाद बहुत ही कम अपने क्षेत्र की जनता के बीच नजर आते हैं, मेरा अभिप्राय यह है कि अक्सर जनता को यह शिकायत रही है कि उनका प्रतिनिधि चुनाव जीतने के बाद क्षेत्र में नजर ही नहीं आता है। वैसे, जनता की शिकायत उचित भी है कि उनके द्वारा चुना हुआ प्रत्याशी अक्सर देश की राजधानी में या फिर प्रदेश की राजधानी में ही नजर आता है, ऐसे प्रत्याशियों पर यह आदेश 'राईट टू रिजेक्ट' निसंदेह हर समय तलवार बनकर लटकता हुआ जरुर नजर आयेगा। यह सच भी है कि इस आदेश की चपेट में आने वाले सर्वप्रथम यही लोग होंगे जो चुनाव जीत कर अपने क्षेत्र व क्षेत्र की जनता को भूल जाते हैं, ऐसे प्रत्याशी जब दोबारा जनमानस के सामने चुनाव मैदान में नजर आयेंगे तो जनता सर्वप्रथम इन्हें ही 'राईट टू रिजेक्ट' के माध्यम से सबक सिखाने का प्रयास करेगी।  

इस आदेश की चपेट में आने वाला यदि दूसरा कोई होगा तो वह होगा राजनैतिक दलों का तानाशाही पूर्ण रवैय्या, अभिप्राय यह है कि अक्सर बड़े राजनैतिक दल जनभावनाओं को नजरअंदाज करते हुए मनमानी ढंग से प्रत्याशी थोपने का प्रयास करते हैं। अब जो भी राजनैतिक दल मनमानी करते हुए जनभावनाओं के विपरीत किसी प्रत्याशी को जबरन जनता पर थोपने का प्रयास करेगा, या करेंगे, तो निसंदेह थोपे हुए प्रत्याशी व दल दोनों ही जनता के 'राईट टू रिजेक्ट' रूपी अधिकार के शिकार होंगे। सीधे, सरल व स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो ऐसे प्रत्याशी व दल जो जनभावनाओं के विरुद्ध नजर आयेंगे वे औंधे मुंह जमीन पर धूल चाटते हुए भी नजर आ सकते हैं, इस आदेश के प्रभाव से निश्चिततौर पर जबरदस्ती थोपे गए प्रत्याशियों व बाहरी प्रत्याशियों पर जरुर अंकुश लगेगा, एक तरह से यह स्थिति राजनैतिक दलों के लिए परीक्षा की घड़ी साबित होगी।  

तीसरे नंबर पर यदि कोई प्रभावित होगा तो वे होंगे आपराधिक व दागी प्रवृत्ति के प्रत्याशी, अभी तक दागी व आपराधिक प्रवृत्ति के प्रत्याशियों की जैसे-तैसे दाल गल जाती थी किन्तु अब इस अधिकार के मिलने से ये सीधे तौर पर 'राईट टू रिजेक्ट' रूपी जन पैमाने पर नापे जायेंगे। सम्भवत: अब ऐसा नहीं होगा कि आपराधिक व दागी प्रवृत्ति के प्रत्याशी आसानी से चुनाव मैदान में आयें और चुनाव जीत कर चले जाएँ। ऐसे स्वभाव के प्रत्याशियों को वर्त्तमान में राजनैतिक दलों का भरपूर समर्थन मिला हुआ है तथा ऐसे लोग ही आज बाहुबली नेता कहलाते हैं। इन या इस तरह के बाहुबली नेताओं को अब जनता के इस 'राईट टू रिजेक्ट' अधिकार के पैमाने से हर हाल में गुजरना पडेगा, गुजरना पडेगा से सीधा-सीधा अभिप्राय यह है कि अब इनकी मनमानी जनता के सामने नहीं चलेगी, अब तो वही होगा जो जनता चाहेगी। अब, बड़े से बड़ा राजनैतिक दल ही क्यों न हो, या बड़े से बड़ा बाहुबली ही क्यों न हो, अगर वह जनता की भावनाओं के अनुरूप नहीं है तो वह भी निश्चिततौर पर 'राईट टू रिजेक्ट' के माध्यम से कसौटी पर खुद को कसता पायेगा।  

इन सब के बीच, अतिउत्साह में हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 'राईट टू रिजेक्ट' के नकारात्मक परिणाम भी सामने आ सकते हैं, नकारात्मक परिणाम से मेरा अभिप्राय यह है कि इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन में 'राईट टू रिजेक्ट' का बटन एक तरह से निर्दलीय प्रत्याशी की भूमिका में नजर आयेगा। जिस प्रकार चुनाव मैदान में उतरे सभी प्रत्याशियों में वोटों का बंटवारा अर्थात मतदान नजर आता है ठीक उसी प्रकार ही 'राईट टू रिजेक्ट' कॉलम में भी मतदान नजर आयेगा। संभव है बंटवारे से 'राईट टू रिजेक्ट' के खाते में आये वोटों के परिणामस्वरूप चुनावी नतीजे कुछ इस तरह से नजर आयें जो हमें यह सोचने पर मजबूर कर दें कि हारने वाला प्रत्याशी जीत गया और जीतने वाला प्रत्याशी हार गया ? इस पैमाने से, वोटों के एक छोटे से अंतर से भी चुनावी समीकरण बदल सकते हैं, समीकरणों का यह बदलाव सकारात्मक होगा या नकारात्मक, ये तो आने वाला समय ही बताएगा ! 

लेकिन, आज हमें यह कहना व मानना पडेगा कि 'राईट टू रिजेक्ट' के आने से मतदाता ताकतवर हुआ है, ताकतवर होगा, अब वह अपनी 'राईट टू रिजेक्ट' रूपी ताकत का इस्तमाल किस तरीके से करेगा यह भी समय ही बताएगा ! ओवरआल, आज मुझे यह कहने में ज़रा भी संकोच नहीं हो रहा है कि मतदाताओं को मिले इस अधिकार से देश की राजनीति की दशा व दिशा जरुर बदलेगी। इस अधिकार के अमल में आने से राजनीति में बदलाव आना लगभग तय है किन्तु यह बदलाव किस पैमाने पर होगा, कितना बड़ा होगा या कितना छोटा होगा, यह कह पाना आज किसी भी राजनैतिक विश्लेषक के लिए मुश्किल जैसा होगा। लेकिन जहां तक मेरा मानना है 'राईट टू रिजेक्ट' रूपी अधिकार के अमल में आने से भले चाहे राजनैतिक क्रान्ति न आये पर राजनैतिक दलों की तानाशाहियों व तानाशाही प्रवृत्ति के प्रत्याशियों पर अंकुश जरुर लगेगा।

'राईट टू रिजेक्ट' वर्त्तमान चुनावी प्रक्रिया में मील का पत्थर साबित हो हम यही आशा करते हैं, साथ ही साथ यह भी उम्मीद करते हैं कि जो लोग चुनावी व राजनैतिक व्यवस्था में बदलाव के लिए संघर्षरत हैं वे यहीं तक सीमित न रहें, क्योंकि बदलाव की दिशा में यह महज एक शुरुवात है, अभी तो और ढेरों बदलावों की जरुरत है, ढेरों प्रयासों की जरुरत है। एक एक कर, धीरे धीरे, गर इसी तरह हम सुधार की दिशा में बढ़ते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब हम लोकतंत्र पर सच्चे मायने में गर्व करें व लोकतंत्र का भरपूर आनंद उठायें। राजनैतिक व्यवस्थाओं के सुधार की दिशा में, क्रम में, सजायाफ्ता प्रत्याशियों पर अंकुश व 'राईट टू रिजेक्ट' रूपी फैसले, ये दोनों कदम देश की सर्वोच्च अदालत ने चले हैं हम आशा करते हैं कि आने वाले दिनों में दो-चार कदम हमारे राजनैतिक दल भी चलें जिससे स्वच्छ व स्वस्थ्य राजनीति की स्थापना हो, धीरे धीरे ही सही पर समय रहते हमारी व्यवस्थाएँ मजबूत हों, लोकतंत्र मजबूत हो !

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

समस्या तब आयेगी जब इनमें से कोई नहीं वाला विकल्प बहुमत में आयेगा?

कालीपद "प्रसाद" said...

बदलाव तो आयेगा और यह शुरुयात है ,संसद के रास्ते हो या न्यायालय के माध्यम से हो ,होगा जरुर l जनता में जागृति आ गई है l
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