Sunday, February 24, 2013

बेचैनी ...


आओ, हम अपने किनारों को, एक कर लें 
अब अलग-अलग हमसे चला नहीं जाता ? 
... 
छोड़ दो, लताड़ दो, धुतकार दो, उन दहशतगर्दों को 
जो बम फोड़ कर,.......कौम को बदनाम करते हैं ? 
... 
वैसे तो, वे एक-दूसरे की पीठ खूब थप-थपा रहे हैं 
मगर अफसोस,..................सुर है न ताल है ? 
... 
मिलने को तो, वो जब भी मिलते हैं 'छाती' तान के मिलते हैं 
मगर अफसोस, कभी.......... उनकी मंसा जाहिर नहीं होती ? 
... 
लो, वो आज फिर, कुछ.........कहे-सुने बिन चले गए 
सच ! उनकी बेचैनी, अब हमसे और देखी नहीं जाती ?

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