Friday, June 29, 2012

गूंगे-बहरे ...


सच ! ये तो 'सांई' में रम जाने का असर है 
कि - अब हमें अपनी भी धुन नहीं रहती !!
... 
इधर हम लिख रहे हैं, उधर तुम पढ़ रहे हो 
फासले, ..................... यूँ कम हो रहे हैं !
... 
आँगन आँगन देव विराजे, आँगन आँगन भाव-भजन हैं 
फिर जात-धर्म के मसलों पर, क्यूँ हम सब गूंगे-बहरे हैं ? 

2 comments:

Arvind Jangid said...

आँगन आँगन देव विराजे, आँगन आँगन भाव-भजन हैं
फिर जात-धर्म के मसलों पर, क्यूँ हम सब गूंगे-बहरे हैं ? बहुत खूब !

प्रवीण पाण्डेय said...

संवादों से मन मानेंगे..