सुनते हैं कि वो सुगर-पेशेंट है यारा ... फिर भी
न जाने क्यूँ ? कड़वी बातों से परहेज करता है !
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हर बार की तरह, इस बार भी बहुत खुश है
मुझे बुरा कह कर, खुद अच्छा बन गया है !
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कहीं कहीं तो अक्ल पे, शक्ल का पर्दा है
तो कहीं, शक्ल-औ-अक्ल दोनों बेपर्दा हैं !
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सच ! उसकी ये आदत भी काबिले-तारीफ़ आदत है
किसी का नाम पूंछो तो, वो खुद का नाम रखता है !
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झूठी ख्वाहिशों में वे कुछ इस कदर डूबे हुए हैं
लग रहा है, ईमान को भी बेच के खा जायेंगे !
4 comments:
बहुत बढ़िया रचना है ।
कृपया मेरे भी ब्लॉग में पधारें ।
मेरी कविता
dekhan mein chhote lagen.....
क्या करें, फितरत कहाँ बदलती है..
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
बसंत पंचमी की शुभकामनाएं....
मां शारदे को नमन!
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