Friday, December 9, 2011

रजाई ... बगिया ...

रजाई ...
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क्या तुम्हें -
रजाई के दायरे का भी
ख्याल नहीं रहता ?
कभी कभी तो
उफ़ ! हद ही कर देते हो !!
ओढ़ने की जगह -
बिछाने भी लग जाते हो !
और तो और
तुम्हें सुध भी नहीं रहती
कहीं के भी कहीं
पैर पसारने लगते हो !!
.
बगिया ...
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तुम पीते हो
कभी कभी तो बहुत ज्यादा
ही पी लेते हो !
याद रहता है तुम्हें ?
कि -
जब बहुत पीकर आते हो
तब
कितने उत्पाती हो जाते हो
रौंध डालते हो तुम
खुद -
अपनी ही बगिया को !!

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