आँखें कह रही हैं कुछ, जुबां खामोश कहती है
उफ़ ! किसकी सुनें, किसकी कहें !!
...
चलो माना कि हम कुछ कहते नहीं है
मगर खामोशियाँ की भाषा, तो पढ़ा कीजिये !
...
चलो माना, मुसाफिर हूँ नहीं तेरी डगर का मैं
'सांई' जाने, पग मेरे अब किस डगर को हैं !
...
सुनो, तुम्हें सुनना पडेगा, बैठ के बातें हमारी
वर्ना चीखना भी हमें आता है यारो !
...
इत्तफाक ! राह चलते एक 'औघड़' मिल गया
बिना मांगे, करोड़ों की नसीहत दे गया !
2 comments:
सुनो, तुम्हें सुनना पडेगा, बैठ के बातें हमारी
वर्ना चीखना भी हमें आता है यारो !... नौबत यही आती है
खामोशी की भाषा बहुत काम की साधो..
Post a Comment